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________________ जैन मिथक तथा उनके आदि स्रोत भगवान् ऋषभ ४१९ भगवान् ने कहा, "अच्छा बेटी, तुम अपना दाहिना हाथ खोलकर निकालो, मैं तुम्हें अक्षय विद्या सिखाता हूँ।" तब ब्राह्मी ने अपना दाहिना हाथ भगवान् के सामने कर दिया। भगवान् ने अपने दाहिने हाथ के अंगूठे से उसकी हथेली पर अ, इ इत्यादि १६ स्वर, क, ख इत्यादि ३३ व्यंजन एवं ४ योगबाह अक्षर लिखकर उसके अक्षर विद्या या लिपिबद्ध विद्या सिखलाई । उस पुत्री के नाम से ही उस आद्यलिपि का नाम जगत् में बाह्मीलिपि प्रसिद्ध हुआ। सुन्दरी भगवान् के दाहिने घुटने पर बैठी थी । अतः उसकी उसकी हथेली पर भगवान् ने अपने बाएं हाथ के अंगूठे से १, २, ३, आदि अंक लिखकर इकाई, दहाई, सैकाड़ा आदि को अंक पद्धति तथा संकलन, विकलन, गुणा भाग आदि गणित सिखलाया। बांया हाथ होने से उन अंकों के लिखने का क्रम अक्षरों से उलटा (दाहिनी ओर से इकाई आदि के रूप में प्रारम्भ होकर बाई ओर लिखने की परिपाटी ) बतलाया गया। अतः तभी से अंकों के लिखने की पद्धति अक्षरों की उपेक्षा उलटी चल पड़ी। इस प्रकार भगवान् आदिनाथ ने जगत् में कर्मयुग ( कृषि, शिल्प, विद्या, व्यापार आदि परिश्रम करके जीवन निर्वाह करने के उपाय ) की सष्टि की। इस कारण जगत में उनके नान 'आदि ब्रह्मा' 'प्रजापति' विधाता, आदिनाथ, आदोश्वर आदि विख्यात हुए। ___ एक दिन भगवान् ऋषभनाथ राजसभा में बैठे थे। उस समय नीलांजना नामक अप्सरा सभा में नृत्य करते करते आयु पूर्ण हो जाने से मृत्यु को प्राप्त हो गई। इस घटना से उन्हें वैराग्य हो गया। उन्होंने अपने बड़े पुत्र भरत को राज्य सिंहासन पर बिठाकर अपना समस्त राज्यसभा तथा गृहस्थाश्रम का भार उसे सौंप दिया। अपने अन्य पुत्रों को भी थोड़ा-थोड़ा राज्य देकर स्वयं सब कुछ त्यागकर वे वन की ओर चल दिए। वहां पर उन्होंने अपने शरीर के समस्त वस्त्र-भूषण उतार दिए और नग्न होकर छह मास का योग लेकर आत्म-साधना में बैठ गए। उस अचल आसन के समय उनके शरीर पर सर्प आकर चढ़ते उतरते रहते थे तथा गले में भी लिपटे रहते थे। उनके सिर पर बाल बहत बढ़ गए थे। उस जटा में वर्षाऋतु का जलभर जाता था और बहुत समय तक जल की धारा बहती रहती थी। आगे चलकर वे शिव के प्रतीक बन गए। छह मास निराहार रहकर, कठोर तपश्चर्या के पश्चात जब वे भोजन के लिए निकटवर्ती गांव में जाए, तो वहाँ के स्त्री-पुरुष यह नहीं जानते थे कि साधु को किस प्रकार आहार दिया जाय। भगवान अपने मुख से कूछ बोलते न थे। अतः उन्हें छह मास तक भोजन नहीं मिल पाया। इस तरह एक वर्ष तक निराहार रहकर उन्होंने तपस्या की। एक वर्ष के पश्चात हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस के यहाँ ठीक विधि से आहार मिला । उस समय भगवान ने तीन चल्ल इक्ष का रस पीकर पारणा की। तदनन्तर स्त्री-पुरुषों को साधु को भोजन कराने की विधि मालूम हो गई। एक हजार वर्ष की कठोर आत्म-साधना करने के पश्चात् भगवान् ऋषभ ने आत्मशत्रुओं-काम, क्रोध, मद, मोह, ईर्ष्या, राग, द्वेष आदि पर विजय प्राप्त की, संसार भ्रमण के कारणभूत घातिया-कर्मों पर विजय प्राप्त की और वे शुद्ध-बुद्ध, वीतराग, सर्वज्ञ, सर्वद्रष्टा बन गए । आत्म-शत्रओं पर विजय पाने के कारण उनका नाम 'जिन' (जीतनेवाला) विख्यात हुआ। उसी समय उनका मौन भंग हआ। उन्होंने जनता को धर्म का उपदेश देना प्रारंभ किया। उन्होंने संसार से मुक्त होने की विधि, जन्म-मरण से छुटकारा पाकर अजर-अमर परमात्मा बनने की प्रक्रिया सबको सरल सुबोध समझाई। इस प्रकार उन्होंने सबसे प्रथम जिस धर्म का प्रचार किया, उसका नाम उनके प्रसिद्ध 'जिन' नाम के अनुसार जनधम प्रसिद्ध हुआ। उनके धर्म-उपदेश से सर्वसाधारण को लाभ पहुंचाने के लिए देवताओं द्वारा एक गोल, सुन्दर, विशाल सभा-मण्डप ( समवशरण ) बनाया गया। उसमें १२ कक्ष बनाए, उन कक्षों में देव-देवियां, मनुष्य-स्त्रियाँ, साधुसाध्वियां, तथा पशु-पक्षी आदि सभी जीव बैठकर भगवान् का उपदेश सुनते थे। उस समवशरण ( सभा-मण्डप ) के बीच में एक तीन कटनी की वेदी बनी थी। उसके ऊपर सिंहासन था । सिंहासन के बीच कमल था, उस कमल पर भगवान् विराजते थे। भगवान् का मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर होता था किन्तु दैवी चमत्कार से उनका मुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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