SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 533
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८४ ५० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड में राजनैतिक अस्थिरता का ताण्डव प्रारम्भ हुआ जो सन् १८६८ तक चला। बाद में ब्रिटिश शासकों द्वारा १८५७ के गदर में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादारी के पुरस्कार स्वरूप इसे रीवा राज्य में विलीन कर दिया गया। बिपुरी के कलचुरी शासक और उनकी कला ___कला एवं स्थापत्य के विकास की दृष्टि से शहडोल का कलचुरी काल ही विशेष रूप से उल्लेखनीय है । कलचुरी शासक साहित्य, कला एवं धर्मप्रेमी थे। उन्होंने राजकोष से अनेक कलात्मक शैव मन्दिरों का निर्माण किया। उनके काल में कला एवं कलाकारों को राज्य का संरक्षण प्राप्त था। अमरकंटक का स्वर्ण मन्दिर ११ वीं सदी में राजा कर्ण द्वारा बनवाया गया। इसी प्रकार भेडाघाट का बैद्यनाथ मन्दिर राजा नरसिंहदेव द्वारा नि काल में जैन, वैष्णव एवं शैव मन्दिरों एवं मतियों का निर्माण भी राजकीय संरक्षण में हआ। भेड़ाघाट, कारीतलाई, बिलहरी, त्रिपुरी, पनागर, नोहटा, रीठी, सोहागपुर, सिंहपुर, अमरकंटक, मऊबेला, बैजनाथ, मड़ई एवं रीवा के निकट चिंद्रेह, गुर्गी, मंहसांव आदि ऐसे स्थान है जहाँ कलचुरी कला का उन्मुक्त विकास हुआ। इन स्थानों से प्राप्त मूर्तियाँ कलचुरी कला के प्रतीकात्मक उत्कृष्ट नमूने कहे जा सकते हैं। कलचुरी कालीन जैन स्थापत्य कला . यह एक रोचक तथ्य है कि यद्यपि कलचुरी शासक गण शैव मतावलम्बी थे, परन्तु उनकी यह शैव श्रद्धा जैनधर्म के विकास में बाधा नहीं बनी। कलचुरी कालीन अभिलेखों से यह सिद्ध होता है कि उस काल में जैन मन्दिर निर्मित हये थे। तीर्थकरों एवं उनके शासन देवी-देवताओं के स्थापत्य अवशेषों से ज्ञात होता है कि उस काल में जैनधर्म को राजकीय एवं व्यक्तिगत, दोनों ही संरक्षण प्राप्त थे। उनकी प्रजा का एक प्रभावशाली वर्ग जैन धर्मावलम्बी था। इस काल में शहडोल जिले के सोहागपुर या उसके आस-पास जैन मन्दिर विद्यमान थे। पुरातत्वीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि कलचुरी नरेशों के काल में जैनधर्म अतिसमृद्ध अवस्था में था। __ जैन धर्मावलम्बियों द्वारा इस काल में अनेक भव्य जैन मन्दिर, धर्मशालाएं, स्तूप, स्मारक एवं साधुओं के लिये गुफाएँ आदि निर्मित की। शहडोल जिले के सोहागपुर, सिंहपुर, अनुपपुर, पिपरिया, अरा (कोतमा), सिंहवाड़ा, अर्जुली, मऊग्राम, बिरसिंहपुर पाली, उमरिया, सीतापुर, बरबसपुर, पथरहटा, चिटोला, विक्रमपुर, अंतरिया, झगरहा, बधवापरा, चुआ, पावगाँव, लखबरिया, सिलहरा, आदि स्थानों में जैन स्थापत्य एवं मूर्तिकला के अवशेष रूप में तीर्थंकरों एवं उनके शासन देवी-देवता (यथ-यक्षियों) की मूर्तियां विपुल मात्रा में उपलब्ध हुई हैं। सोहागपुर की गढ़ी में या उसके आस-पास जैन मन्दिर विद्यमान थे। इस तथ्य की पुष्टि सोहागपुर के ठाकुर के महल में संग्रहीत अनेक जैन मतियों से होती है। इसमें शासन देवी-देवताओं मूर्तियाँ भी सम्मिलित है। इस महल के निर्माण में अधिकांश रूप से जैन मन्दिरों के अलंकृत अवशेषों का उपयोग किया।" रीवा राज्य गजेटियर के अनुसार पाली के एक हिन्दू मन्दिर (बिरासनी देवी) में अनेक प्राचीन जैन प्रतिमाएँ थीं। शहडोल नगर के पांडव नगर, राजाबाग, सोहागपुर-गढ़ी, जिलाध्यक्ष कार्यालय, कोतवाली. शक्तिपीठ एवं दुर्गा मन्दिर, शाहंशाह आश्रम, बाण गंगा एवं विराट मन्दिर में जैनकला के अवशेष एवं खण्डित मूर्तियाँ अभी-भी विद्यमान है। प्रारम्भ में जैन साधु अधिकतर वनों-कन्दराओं में रहते थे और भ्रमणशील होते थे। कलचुरी काल में इस क्षेत्र में श्रमण साधुओं का उन्मुक्त विहार होता था और वे निर्भय होकर नगरों से दूर एकान्त वनों में आत्मसाधना करते थे। क्षेत्र निरीक्षण के मध्य मुझे कनाड़ी ग्राम में एक जैन गुफा मिली। इसके अतिरिक्त, जिले में लखबरिया एवं सिलहरा (भालूमाड़ा) में भी गुफाएँ हैं । यहाँ जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ एवं कलावशेष है। इससे प्रकट होता है कि ये गुफाएँ भी जैन साधुओं के आश्रम स्थल हेतु निर्मित की गयी होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy