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३७८ ५० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
इसे अतिशय क्षेत्र कहा जाता है। एक अत्याचारी मुगल शासक ने मूर्तिखण्डन करने का यहां प्रयास किया था। पर उसके सेवकों पर तत्काल मधुमक्खियों का ऐसा आक्रमण हुआ कि वे सब भाग खड़े हुए । इस अतिशय के कारण यह अतिशय क्षेत्र माना जाता है । निर्वाण-भूमि अभी तक नहीं माना जाता था । यहाँ प्रश्न है कि मुगल काल में यह अतिशय क्षेत्र माना जाए, पर क्षेत्र तो उससे बहत पर्व का है। यह छठवीं शताब्दी की कला का प्रतीक है । वहाँ जैनेतर मन्दिर भी, जिसे ब्रह्म मन्दिर कहते है, छठी शताब्दी से है ऐसा कहा जाता है । तब छठी शताब्दी से मुगल काल तक १००० वर्ष तक यह कौन-सा क्षेत्र था? यह कुण्डलाकार पवंत ऐसा स्थान नहीं है जहाँ किसी राजा का किला या गढ़ी है जिससे यह माना जाए कि उसने मन्दिर और मूर्ति बनवाई होगो। कोई प्राचीन विशाल नगर भी वहाँ नहीं है कि किन्हीं सेठों ने या समाज ने मन्दिर निर्माण कराया हो । तब ऐसी कौन-सी बात है जिसके कारण यहाँ इतना विशाल मन्दिर और मूर्ति बनाई गई । तर्क से यह सिद्ध है कि यह सिद्ध-भूमि हो थी जिसके कारण इस निर्जन जंगल में किसी ने यह मन्दिर बनाया तथा अन्य ५७ जिनालय भो समय-समय पर यहाँ बनाये गये हैं। ये जिनालय वि० सं० ११०० से १९०० तक के पाये जाते है। सन संवत लेख रहित भी बीसों खंडित जिनबिम्ब वहाँ स्थित है। वहाँ १७५७ का जो शिलालेख है, वह मन्दिर के निर्माण का नहीं बल्कि जीर्णोद्धार का है। लेख संस्कृत भाषा में है जिसमें यह उल्लेख है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य के अन्वय में यशःकीर्ति नामा मुनीश्वर हुए। उनके शिष्य श्री ललितकोति तदनंतर धर्मकीर्ति पश्चात् पद्मकीति पश्चात् सुरेन्द्रकीति हुए। उनके शिष्य सुचन्द्रगण हुए जिन्होंने इस स्थान को जीर्ण-शीर्ण देखकर भिक्षावृत्ति से एकत्रित धन से इसका जोर्णोद्धार कराया । अचानक उनका देहावसान हो गया, तब उनके शिष्य ब्र० नेमिसागर ने वि० सं० १७५७ माघ सुदी १५ सोमवार को सब छतों का काम पूरा किया।
ऐसी किंवदन्ती चली आ रही है कि चन्द्रकीर्ति (सुचन्द्रगण) नामक कोई भट्टारक भ्रमण करते-करते यहाँ आये, उनका दर्शन करके ही भोजन का नियम था, किन्तु कोई मन्दिर पास न होने से वे निराहार रहे। तब मनुष्य के छद्मवेश में किसी देवता ने उन्हें कृण्डलगिरि पर ले जाकर स्थान का निर्देश किया। वे वहाँ पर गये और उस विशालकाय प्रतिमा का दर्शन किया तथा उन्होंने ही इस मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया। किंवदन्ती शिलालेख के लेख से मेल खाती है, अतः सत्य है। यह जीर्णोद्धार प्रसिद्ध बन्देलखण्ड केसरी महाराज छत्रसाल के राज्यकाल में हुआ। कहते हैं अपने आपत्तिकाल में महाराज छत्रसाल इस स्थान में कुछ दिन प्रच्छन्न रहे हैं और पुनः राज-पाट प्राप्त करने पर उनकी तरफ से ही तालाब सीढ़ियां आदि का निर्माण भक्ति-वश कराया गया है ।
____ इन सब प्रमाणों के होते हुए भी लोग संदेह करते थे कि वस्तुतः यही स्थान श्रीधर केवली की निर्वाण भूमि है, इसका कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। सन् ६७ में, मैं वीर निर्वाण महोत्सव पर कुण्डलगिरि गया था। वहाँ बड़े मन्दिर के चौक में एक प्राचीन छतरो बनो है और उसके मध्य ६ इन्च लम्बे चरण-युगल हैं। अनेकों बार दर्शन किये इन चरणों के । ये भट्टारकों के चरण चिन्ह होंगे, ऐसा मानते रहे । सोचा, चरण चिन्ह तो सिद्ध-भूमि में स्थापित होने का नियम है, यह तो अतिशय क्षेत्र है, सिद्धभूमि नहीं है, अतः यहाँ चरणों पाया जाना यह बताता है कि किन्हों 'भट्टारकों' ने अपने या अपने गुरु के चरण स्थापित किये होंगे । कभी विशेष ध्यान नहीं दिया पर इस बार हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब पुजारी ने हमें बताया कि चरणों के नीचे की पट्टी पर कुछ लेख है। हमने तत्काल उसे ले जाकर जमीन में सिर रखकर उसे बारीकी से पड़ा तो घिसे अक्षरों में कुछ स्पष्ट पढ़ने में नहीं आया, तब जल से स्वच्छ कर कपड़े से प्रक्षालन कर उसे पढ़ा तो उन चरणों के पाषाण से सामने की पट्टी पर लिखा है :
"कुण्डलगिरौ श्री श्रीधर स्वामी" इस लेख को पढ़ अपनी वर्षों की धारणा सफल प्रमाणित हो गई। इस प्रमाण की समुपलब्धि में कोई सन्देह नहीं रह गया। यह सूर्य की तरह सप्रमाण सिद्ध है कि ये चरण श्री श्रीधर स्वामी के हैं और यह क्षेत्र श्री कुण्डलगिरि है ।
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