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३७२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड सिद्धक्षेत्र होना चाहिये । इसे सिद्धक्षेत्र सिद्ध करने के लिये उन्होंने जो तर्क प्रणाली अपनायी है, वह अवश्य ही विचारणीय हो जाती है । उन्होंने त्रिलोक प्रज्ञप्ति, हरिवंश पुराण और धवला-जयधवला के प्रमाण देकर पांच पहाड़ों का विशेष वर्णन प्रस्तुत किया है। त्रिलोक प्रज्ञप्ति के अनुसार ऋषिगिरि, वैभारगिरि, विपुलगिरि, छिन्नगिरि और पाण्डुगिरि ये पाँच पहाडों के नाम हैं। धवला व जयधवला के अनसार भी पांच पहाडों के नाम त्रिलोक प्रज्ञप्ति के अनरूप हैं। मात्र हरिवंशपराण के अनसार, छिन्नगिरि के स्थान में बलाहकगिरि कहा गया है। शेष चार पहाडों के नाम वही है जो त्रिलोक प्रज्ञप्ति में स्वीकार किये गये हैं। यहाँ इतना विशेष जानना कि त्रिलोक प्रज्ञप्ति में पाण्डुगिरि का कोई आकार नही दिया गया है, किन्तु शेष उल्लेखों में उसे गोल लिखा है। एक बात यहाँ ध्यान देने योग्य है कि इन सभी ग्रन्थों में जो ये पांच पहाड़ों के नाम आये हैं, वे उनका परिचय कराने के अभिप्राय से ही आये हैं। वे सिद्ध क्षेत्र है, इस अभिप्राय से उनका उल्लेख उन ग्रन्थों में नहीं किया गया है । इसलिए उन ग्रन्थों का आधार देकर पाण्डुगिरि को सिद्धक्षेत्र ठहराना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता।
इसके विपर्यास में, त्रिलोक प्रज्ञप्ति में जहाँ कुण्डलगिरि को श्रीधर स्वामी का निर्वाण क्षेत्र कहा गया है, वह प्रकरण हो दूसरा है। वहाँ यह बतलाया गया है कि भगवान् महावीर स्वामी के मोक्ष जाने के बाद कितने केबलो मोक्ष गये है। यहाँ इस भारत भूमि में कितने सिद्धक्षेत्र हैं और वे कहाँ-कहाँ हैं, यह नहीं बतलाया गया है । मात्र प्रसङ्गवश कुण्डलगिरि को पाण्डुगिरि सिद्ध करके उसे सिद्धक्षेत्र ठहराना उचित प्रतीत नहीं होता। इसे दृष्टिओझल करके प्रथम लेख में लिखते हैं कि-यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि बलाहक को छिन्न भी कहा जाता है। अतः एक पर्वत के ये दो नाम हैं और इनका उल्लेख ग्रन्थकारों ने दोनों नामों से किया है। जिन्होंने बलाहक नाम दिया है, उन्होंने छिन्न नाम नहीं दिया और जिन्होंने छिन्न नाम दिया है, उन्होंने बलाहक नाम नहीं दिया और अवस्थान सभी ने एक-सा बतलाया तथा पंच पहाड़ों के साथ उसको गिनती की है। अतः बलाहक और छिन्न दोनों पर्यायवाची नाम हैं। इसी तरह 'ऋष्याद्रिक और ऋषिगिरि-ये भी पर्याय नाम हैं।'
__"अब इधर ध्यान दें कि जिन वीरसेन और जिनसेन स्वामी ने पाण्डुगिरि का नामोल्लेख किया है, उन्होंने फिर कण्डलगिरि का नामोल्लेख नहीं किया। इसी प्रकार पूज्यपाद ने जहाँ सभी निर्वाण क्षेत्रों को गिनाते हुये कुण्डलगिरि का नाम दिया है, फिर उन्होंने पाण्डुगिरि का उल्लेख नहीं किया। हाँ, यतिवृषभ ने अवश्य पाण्डुगिरि और कुण्डलगिरि दोनों नामों का उल्लेख किया है । लेकिन दो विभिन्न स्थानों में किया है। पाण्डुगिरि का तो पाँच पहाड़ों के साथ प्रथम अधिकार में और कुण्डलगिरि का चौथे अधिकार में किया है । अतएव पाण्डुगिरि-भिन्न कुण्डलगिरि अभीष्ट हो. ऐसा नहीं कहा जा सकता। किन्तु ऐसा जान पड़ता है कि यतिवृषभ ने पूज्यपाद की निर्वाणभक्ति देखी होगी और उसमें पज्यपाद के द्वारा पाण्डुगिरि के लिये नामांतर रूप में प्रयुक्त कुण्डलगिरि को पाकर इन्होंने कुण्डलगिरि का भी नामोल्लेख किया है। प्रतीत होता है कि पूज्यपाद के समय में पाण्डुगिरि को कुण्डलगिरि भी कहा जाता था। अतएव उन्होंने पाण्डुगिरि के स्थान में कुण्डलगिरि नाम दिया है।"
इस उल्लेख से ऐसा लगता है कि पंच पहाड़ों में सभी पहाड़ सिद्धक्षेत्र है। ऐसा मानकर ही कोठिया जी कुण्डलगिरि को पाण्डुगिरि समझकर उसे (पाण्डुगिरि को) सिद्धक्षेत्र सिद्ध कर रहे हैं। अपने इस कथन की पुष्टि में जैसे छिन्नगिरि का दूसरा नाम बलाहकगिरि है, वैसे ही पाण्डुगिरि का दूसरा नाम कुण्डलगिरि कुण्डलाकार है और पाण्डगिरि गोल है, यह बता करके भी दोनों को एक लिखा है। किन्तु उनके ये तर्क तभी संगत माने जा सकते हैं जब अन्य किसी ग्रन्थ में वे पाण्डुगिरि का पर्याय नाम कुण्डलगिरि बता सकें। रही कुण्डलाकार और गोल आकार की बात, सो पाण्डुगिरि गोल होकर ठोस है और कुण्डलगिरि ऐसा ठोस नहीं है। बलाहक (छिन्न) पहाड़ को अवश्य हो धनुषाकार बतलाया गया है। यदि पाण्डुगिरि भी धनुषाकार होता, तो उसे गोल नहीं लिखा जाता। इसलिए जहाँ पाण्डुगिरि को कूण्डलगिरि ठहराना तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता, वहाँ पाण्डुगिरि को धनुषाकार ठहराना भी तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता।
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