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________________ पौरपाट (परवार) अन्वय-१ ३५७ उपरोक्त पट्टावलियों में से पहली और दूसरी पट्टावली में गुप्तिगुप्त को प्रमार या पंवार स्वीकार किया है । पहली पट्टावली में उनके द्वारा 'परवार अन्वय' में एक हजार घर दीक्षित करने की बात कही गई है। इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने स्वयं 'परवार' अन्वय में दीक्षित होने के बाद मुनि अवस्था में अन्य कुटुंबों के श्रावक कुलों को इस अन्वय में दोक्षित किया होगा। इस घटना से ऐसा लगता है कि अधिकतर ये कुटुंब परमार क्षत्रिय हो होने चाहिये क्योंकि इनके गुरु परमार वंश के ही थे। यद्यपि प्राग्वाट इतिहास का बारीकी से अध्ययन करने पर यही सिद्ध होता है कि प्राग्वाट अन्वय का संघटन अनेक ब्राह्मण कुलों, सोलंकी कुलों, चौहान कुलों, गहलोत कुलों, परमार कुलों और बोहरा कुलों से किया गया है, पर मूल में ये सब क्षत्रिय कुल परमार राजपूत ही थे। उनका अलग-अलग नामकरण बाद में हुआ है। इस समय परवारों के अनेक कुटुंब 'पांडे' कहलाते हैं। बहुत संभव है कि वे ब्राह्मण कुलों से 'पौरपाट' अन्वय में दोक्षित हुए हों। पट्टधर आचार्यों में भी अनेक आचार्य ब्राह्मण रहे हैं। स्वयं गौतम गणघर भी ब्राह्मण कुल के थे । नागौरो पट्टावली में भद्रबाहु २ को ब्राह्मण कहा ही गया है। इसलिये संभव है कि उनके साथ अनेक ब्राह्मण कुल जैनधर्म में दीक्षित हुए हों। जबलपुर, म०प्र० से प्रकाशित होने वाले 'परवार बन्धु' मासिक (अब बन्द) के मई-जून, १९४० के अंक में स्व. श्री नाथू राम जी प्रेमी ने परमार क्षत्रियों से परवार जाति के विकास की बात का निषेध करते हुए कहा है कि 'परमार' से 'पंवार' तो ठीक अपभ्रंश है, पर यह 'परवार' नहीं हो सकता। इसलिये 'परवार' शुद्ध शब्द 'पल्लीवाल. ओसवाल, जैसवाल" जैसा ही है और उसमें नगर एवं स्थान का संकेत सम्मिलित है । यदि प्रेमी जी ने इस तथ्य पर अनुसंधान किया होता कि कई शताब्दियों से प्रचलित 'परवार अन्वय' पहले किस नाम से संबोधित किया जाता था, 'परवार' शब्द किस मूल शब्द का अपभ्रष्ट रूप है, तो शायद उनका यह मंतव्य कुछ भिन्न ही होता । यह तो हम मानते ही हैं कि इस अन्वय का मूल नाम 'परवार' नहीं था। प्रेमीजी भी यह मानते हैं। उन्होंने अतिशय क्षेत्र पचराई के शांतिनाथ के मन्दिर के १०६५ ई. के शिलालेख देने के बाद 'पौरपाट' या 'पौरपद' अन्वय के तोन लेख और अपने लेख में दिये हैं। अन्त में उन्होंने लिखा है, 'इससे स्पष्ट मालूम होता है कि इन लेखों में 'पौरपट या पौरपाट' शब्द 'परवारों के लिये ही आया है। इसकी पुष्टि में उन्होंने और भी प्रमाण दिये है। प्रेमोजी के इन प्रमाणों से यह तो स्पष्ट होता ही है कि इस अन्वय का मूल नाम 'परवार' न होकर 'पौरपाट' या 'पौरपद' ही था। अतः यह उनको कल्पना ही है कि परमार क्षत्रिय कुलों से परवार अन्वय का विकास नहीं हआ। यह सही है कि किसी अन्वय को नया नाम देते समय जैसे ग्राम, नगर आदि का ख्याल रखा जाता है, वैसे हो उस प्रदेश का भी ख्याल रखा होगा जिसमें 'प्राग्वाट' अन्यय का संगठन हुआ था। 'प्राग्वाट इतिहास' के अनुसार, श्रीमालपुर के पूर्ववाट (पूर्वभाग) में जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बसते थे, उनमें से ९०,००० स्त्री-पुरुषों ने जैनधर्म की दीक्षा अंगीकार की। वे नगर में पूर्वभाग में रहते थे, अतः उन्हें 'प्राग्वाट' नाम से प्रसिद्ध किया गया । नेमिचन्द्रसूरि कृत महावीर चरित्र की प्रशस्ति में भी इस अन्वय की प्रसिद्धि का यही कारण बताया गया है। इसके विपर्यास में, श्री गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा का मत है कि 'पुर' शब्द से 'पुरवाड' और 'पौरवाड' शब्दों की उत्पत्ति हुई है। 'पुरा शब्द मेवाड़ के 'पुर' जिले का सूत्रक हैं । मेवाड़ के लिये प्राग्वाट शब्द भी लिखा मिलता है। उनके इस मत से तो ऐसा लगता है कि मेवाड़ में 'पुर' नामक कोई जिला (मंडल) था। इसलिये या तो इस नाम को आधार बनाकर या मेवाड़ के अमुक भाग के 'प्राग्वाट' नाम के आधार पर उस क्षेत्र या प्रदेश में बसने .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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