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पौरपाट (परवार) अन्वय-१ ३५५
(१) मिति अषाढ शुक्ल १० वि० चौसखा पोरवाड़ जात्युत्यन्न श्री जिनचंद्र हुए। इनका गृहस्थावस्था काल २४ वर्ष ९ माह, दीक्षाकाल ३२ वर्ष ३ माह, पट्टस्थ काल ८ वर्ष ९ माह एवं विरह दिन ३ रहे । पूर्णायु ६५ वर्ष ९ माह ९ दिन । इनका पट्टस्थक्रम ४ है। .
(२) मिति आश्विन शुक्ला १० वि० ७६५ में पोरवाल द्विसखा जात्युत्पन्न श्री अनंतवीर्य मुनि हुए। इनका गृहस्थकाल ११ वर्ष, दीक्षाकाल १३ वर्ष, पट्टस्थकाल १९ वर्ष ९ माह २५ दिन एवं विरहकाल १० दिन रहा। इनकी पूर्णायु ४३ वर्ष १० माह ५ दिन की थी । इनके पट्टस्थ होने का क्रम ३१ है।
(३) मिति आषाढ शुक्ल १४ वि० १२५६ में अठसखा पोरवाल जात्युत्पन्न श्री अकलंकचंद्र मुनि हुए । इनका गृहस्थावस्थाकाल १४ वर्ष, दीक्षाकाल ३३ वर्ष, पट्टस्थकाल ५ वर्ष ३ माह २४ दिन, अंतरालकाल ७ दिन रहा । इनकी पूर्णायु ४८ वर्ष ४ माह १ दिन को थी । इनके पट्टस्थ होने का क्रम ७३ है ।
(४) मिति आश्विन शुक्ला ३ वि० १२६५ में अठसखा पोरवाल जात्युत्पन्न श्री अभयकीति मुनि हुए। इनका गृहस्थावस्था काल ११ वर्ष २ माह, दोक्षाकाल ३० वर्ष, पट्टस्थकाल ४ माह १० दिन और अंतरालकाल ७ दिन का रहा। इनकी संपूर्ण आयु ४१ वर्ष ११ माह १० दिन की थी। इनका पट्ट स्थ-क्रमांक ७८ है ।
ये दिगंबर जैन समाज, सीकर द्वारा १९७४-७५ में प्रकाशित चारित्रसार के अन्त में प्राचीन शास्त्रभंडार से प्राप्त एक पट्टावली के उपरोक्त कतिपय शिलालेख हैं । इनसे ज्ञात होता है कि पौरपाट अन्क्य का भी विकास पुराने जैनों के समान प्राग्वाट अन्वय से भी हुआ। पोरवाड़ या पुरवार भी वहीं हैं। फिर भी, श्री दौलत सिंह लोढा और श्री अगरचंद्र नाहटा इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते । लोढा जी ने 'प्राग्वाट इतिहास, प्रथम भाग' के पृष्ठ ५४ पर बताया है:
"इस जाति के कुछ प्राचीन शिलालेखों से सिद्ध होता है कि परवार शब्द 'पौरपाट' या पौरपट्ट' का अपभ्रंश रूप है । 'परवार', 'पोरवाल', 'पुरवाल' शब्दों में वर्णों की समानता देखकर बिना ऐतिहासिक एवं प्रमाणित आधारों के उनको एक जातिवाचक कह देना निरी भूल है। कुछ विद्वान् 'परवार' और 'पोरवाल' जाति को एक मानते है, परंतु .. यह मान्यता भ्रमपूर्ण है । पूर्व में लिखी गई शाखाओं के वर्णनों में एक दूसरे की उत्पत्ति, कुल, गोत्र, जन्म-स्थान, जनश्रुति एवं दन्तकथाओं में अतिशय क्षमता है, वैसी परवारजाति के इतिहास में उपलब्ध नहीं है। यह जाति समूची दिगंबर जैन है । यह निश्चित है कि परवार जाति के गोत्र ब्राह्मणजातीय हैं। इससे यह सिद्ध है कि यह जाति ब्राह्मणजाति से जैन बनी है। प्राग्वाट, पोरवाल, पौरवाड़ कही जाने वाली जाति इससे सर्वथा भिन्न है एवं स्वतंत्र है। इसका उत्पत्तिस्थान राजस्थान भी नहीं है।"
ये लोढाजी के स्वतंत्र विचार हैं। संभवतः उन्हें मालूम नहीं कि जो दिगंबर जैन परिस्थितिवश गुजरात और मेवाड के कुछ भागों में बच गये थे, वे अन्त में श्वेतांवरों में मिल गये। विक्रम की १४-१५ वीं सदी तक तो उनका बुंदेलखंड में आकर बसने वाले दिगंबर जैनों के साथ संपर्क बना रहा, परंतु भट्टारक देवेन्द्रकीति के बुंदेलखंड में आ जाने के बाद धीरे-धीरे उनका संपर्क शेष सजातीय जैनों से छटता गया। यह हमारी कल्पना मात्र नहीं है । श्वेतांबर विद्वान अपने तद्-युगीन साहित्य में यह स्वीकार करते हैं। मुनि जिनविजय ने 'कुमारपाल प्रतिबोध' की प्रस्तावना में अन्य ग्रन्थ का उल्लेख देते हुए बताया है कि श्रीपुरपत्तन में कुमुदचंद्र आचार्य को शास्त्रार्थ में हराकर वहाँ दिगंबरों का प्रवेश ही निषिद्ध कर दिया था (११४७ ई०) । गलोढा जी ने स्वयं लिखा है कि कर्नाटकवासी वादी कुमदचंद को 'देवसूरि' ने वाद में हरा दिया। परास्त होकर भी उन्होंने अपनी कुटिलता नहीं छोड़ो । वे मंत्रादि का प्रयोगकर श्वेतांबर साधुओं को कष्ट पहुँचाने लगे। अंत में उनको शांत न होता हुआ देखकर देवसूरि ने अपनी अद्भुत मंत्रशक्ति का प्रयोग किया । वे तुरंत ठिकाने आ गये और पत्तन छोड़कर अन्यत्र चले गये । उन्होंने एक प्रकरण में इस स्थिति का संकेत भी दिया है कि वहाँ
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