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________________ जैनों का सामाजिक इतिहास ३४१ प्रचार करते रहे । जैन सन्तों की साहित्यक एवं धर्मोपदेशक प्रवृत्तियों ने हिन्दू पुनरुत्थान के समय में भी दक्षिण में जनों की स्थिति को सुदृढ बनाये रखा। कमी-कमी तो ये सन्त राजनीतिक घटनाओं में भी रुचि लेते थे और आवश्यकता के अनुसार जनता को मार्गनिर्देश करते थे। यह सुज्ञात है कि गंग और होयसल राजाओं को नये राज्य की स्थापना की प्रेरणा जैनाचार्यों ने ही दी थी। इन क्रियाकलापों के बाबजूद भी जैनाचार्य अपने तपस्वी जीवन को भी उन्नत बनाये रखते थे । सामान्यतः जनता एवं शासक जैन साधुओं के प्रति आस्था एवं आदर भाव रखते थे। दिल्ली के मुसलिम शासक भी उत्तर और दक्षिण के विद्वान् जैन साधुओं का आदर और सम्मान करते थे। इसमें कोई अचरज की बात नहीं है कि ऐसे अनेक प्रभावकारी संतों की विशेषताओं एवं क्रियाकलापों ने जैन समुदाय की अतिजीविता में सहायता की हो। (य) चार दानों को प्रवृत्ति अल्प संख्यक समुदाय को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये अन्य लोगों की सदिच्छा पर निर्भर करना पड़ता है। यह शुभेच्छा तभी प्राप्त हो सकती है जब हम कुछ सर्वजनोपयोगी क्रियाकलाप करें। जैनों ने इस दिशा में काम किया और आज भी कर रहे हैं। उन्होंने शिक्षण संस्थायें खोलकर जनसाधारण को शिक्षित बनाने में योग दिया। सार्वजनिक औषधालय या चिकित्सालय खोलकर लोगों का दुख-दर्द दूर किया। प्रारम्भ से ही जैनों ने आहार, निवास, औषध और विद्या के रूप में चार दानों का सिद्धान्त बनाया और उसका पालन किया। कुछ लोगों का कथन है कि जैन धर्म के प्रचार और प्रभाव में इस प्रवृत्ति का बड़ा हाथ है। इस हेतु जहाँ जैनों को पर्याप्त संख्या रही, वहां उन्होंने बाल आश्रम, धर्मशाला, औषधालय और स्कूल खोले । जैनों के लिये यह प्रशंसा को बात है कि उन्होंने शिक्षा-प्रसार के क्षेत्र में बहुत काम किया है। दक्षिण देश में जैन साधु बच्चों को पढ़ाया करते थे। इस सन्दर्भ में डा० अल्तेकर ने सही लिखा है कि वर्णमाला के ज्ञान के पहले बच्चों को श्री गणेशाय नमः के माध्यम से गणेश को नमस्कार करना चाहिये । हिन्दुओं के लिये यह उचित ही है, लेकिन दक्षिण में आज यह परम्परा है कि श्री गणेशाय नमः के पहले 'ॐ नमः सिद्ध" का जैन वाक्य कहा जाता है । इससे यह पता चलता है कि जैन साधुओं ने सामान्य शिक्षा पर अपना इतना प्रभाव डाला कि हिन्दुओं ने इसे, जैनधर्म के अवनमन काल के बाद भी, चालू रखा। आज भी जैनों में चार दान की प्रवृत्ति सारे भारतवर्ष में देखी जा सकती है। वस्तुतः किसी राष्ट्रीय एवं परोपकारी कार्य में सहायता के मामले जैन कभी किसो से पीछे नहीं रहते । (र) अन्य धर्मावलंबियों से मधुर संबंध जैनों की अतिजीविता का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि उन्होंने हिन्दुओं एवं अन्य जैनेतरों के साथ मधुर और घनिष्ठ सम्पर्क बनाये रखा। पहले यह सोचा जाता था कि जैन धर्म बुद्ध या हिन्दू धर्म की एक शाखा है । लेकिन अब यह सामान्यतः मान लिया गया है कि जैनधर्म एक स्वतन्त्र और विशिष्ट धर्म है और यह हिन्दुओं के वैदिक धर्म जितना ही पुराना है। जैन, बौद्ध एवं हिन्दू धर्म भारत के तीन प्रमुख धर्म हैं। इनके अनुयायी सदैव एक-दूसरे के साथ रहे हैं । इसलिये यह स्वाभाविक है कि उनका एक-दूसरे पर प्रभाव पड़े। इन तीनों ही धर्मों में इसीलिये निम्न बातों के संबंध में लगभग समान विचार पाये जाते हैं : (i) मुक्ति और पुनर्जन्म (ii) पृथ्वी, स्वर्ग और नरक का वर्णन (iii) धर्म गुरुओं या तीर्थंकरों का अवतार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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