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३२२ ५० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड को वैशाली स्थित मुनि-सुव्रत स्तूप की पूरी जानकारी थी। कौशाम्बी और वैशाली में जो उत्खनन हुए हैं, उनसे पता चलता है कि तथाकथित 'नार्थनं ब्लक पॉलिस्ड वेयर' विभिन्न रंगों में उपलब्ध था और कभी-कभी चित्रित भी किया जाता था। यद्यपि हमें इस तकनीक अथवा शैली का निश्चित उद्भव-स्थल ज्ञात नहीं है, फिर भी पुरातत्वविदों का ऐसा अनुमान है कि सम्भवतः इस शैली की उत्पत्ति और विकास मगध में ही हुआ था।
'महापरिनिव्वाणसुत्त' में जिस 'बहुपुत्तिका-चेतियम्' की चर्चा की गयी है, सम्भवतः वह विशाला (वैशाली) और मिथिला-स्थित वही चैत्य है जिसका उल्लेख जैन 'भगवती' और 'विपाक' सूत्रों में किया गया है। यह 'चैत्य' हारीति नाम की देवी को समर्पित किया गया था जिसकी बाद में बौद्धों ने देवी के रूप में पूजा आरम्भ की । 'औपपातिक सूत्र' में जिस पूर्णभद्र चैत्य का वर्णन किया गया है, अधिकांश बौद्ध चेतिय अथवा चैत्य उसी के अनुरूप थे । होएनलेने 'चेतिय' की जो व्याख्या की है, उसकी पुष्टि 'औपपातिकसूत्र' में पूर्णभद्र चैत्य के वर्णन से हो जाती है। कहते हैं, यह
चैत्य चम्पा नगर के उत्तर-पूर्व स्थित आम्रशालवन के उद्यान में था। यह अत्यन्त पुरातन (चिरातीत) था जो प्राचीन काल के लोगों द्वारा 'ज्ञात' मान्य एवं प्रशंसित था। इसे छत्र, शंख, ध्वज, 'अतिपताका', मयूर-पंख (लोमपत्थग) तथा घंटों (वितदिका-वेदिका) से सुसज्जित किया गया था। इस पर चारों ओर सुगन्धित जल का सिंचन होता रहता था और चतुर्दिक पुष्प-मालाएँ सजी रहतो थों। विभिन्न रंगों और सुगन्धि के फूल बिखेरे जाते थे और नाना प्रकार की धूपबत्तियाँ (कालागुरू, कुंथु, हक्क तथा रुक्क) जलती रहतो थीं। यहाँ एक-से-एक अभिनेता, विडम्बक, संगीतज्ञ, वीणावादक आदि आकर अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। लोग तरह-तरह का उपहार लेकर यहाँ श्रद्धापूर्वक आते थे। चतुर्दिक विशाल वनखण्ड फैला था जिसके मध्य में एक बहुत बड़ा अशोक वृक्ष (चैत्य-वृक्ष) खड़ा था जिसकी शाखा में एक 'पृथ्वो-शिला-पट्ट' जुड़ा हुआ था।
कुछ समय पूर्व पालकालीन कृष्ण प्रस्तर-निर्मित महावीर की एक मूर्ति वैशाली में पायी गयी थी जो तालाब के निकट वैशाली गढ़ के पश्चिम-स्थित एक आधुनिक मन्दिर में सम्प्रति रखो हुई है। यह मूति अब 'जनेन्द्र' के नाम से विख्यात है और देश के कोने-कोने से जैन श्रद्धालु वैशालो आकर इसको पूजा करते हैं ।३६ वैशाली उत्खनन में प्राप्त एक दूसरी जैन मूर्ति का भी हमें उल्लेख मिलता है । सामान्य लोगों का ऐसा विश्वास है कि उत्तर मुंगेर-स्थित जयमंगलगढ़ जैनियों के कार्य-कलापों का एक प्राचीन केन्द्र था, पर उसकी पुष्टि में कोई भी ठोस साहित्यिक अथवा पुरातात्विक प्रमाण आजतक नहीं मिला है। जनश्रुति के अनुसार मौर्य शासक सम्प्रति भी जैनधर्म का बहुत बड़ा पोषक एवं संरक्षक था जिसने कई जैन मन्दिर बनवाये थे जिनके अवशेष दुर्भाग्यवश अब नहीं मिलते ।
प्राचीन अंग (आधुनिक भागलपुर जिला, जिसके कुछ अंश प्राचीन काल में मिथिला के अंग थे) में हमें जैन कलाकृतियों के कुछ अवशेष मिलते हैं। मंदार पर्वत जैनियों का बहुत पवित्र तीर्थ स्थल माना जाता है। यहीं पर वारहवें तीर्थंकर वासू पूज्यनाथ को निर्वाण प्राप्त हआ था। यहां का पर्वत-शिखर 'जैन सम्प्रदाय के लिये अत्यन्त पवित्र एवं आदत है। कहते हैं, यह भवन खंड श्रावकों (जैनों) का था और उसके एक कमरे में आज भी 'चरण' सुरक्षित रखा हुआ है। इस पर्वत-शिखर पर और भी कतिपय जैन-अवशेष प्राप्त हुए हैं ।३८ १९६१ ई० में वैशाली उत्खनन में भी कुछ जैन पुरातात्विक अवशेष मिले थे। भागलपुर के निकट कर्णगढ़ पहाड़ी में भी पर्याप्त जैन अवशेष प्राप्त हुए है। यहाँ के प्राचीन दुर्ग के उत्तर में स्थित एक जैन बिहार का भी प्रसंग आया है। यदि उत्तर बिहार के अबतक उपेक्षित किन्तु महत्वपूर्ण प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों पर बड़े पैमाने पर उत्खनन कार्य किये जायें, तो इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि इन क्षेत्रों से पर्याप्त संख्या में जैन पुरातात्विक अवशेष प्रकाश में आयेंगे।
वास्तुकला की दृष्टि से, मिथिला में ऐसा कोई महत्वपूर्ण अवशेष अबतक प्राप्त नहीं हो पाया है। वास्तुकला के अधिकांश अवशेष दिगम्बर सम्प्रदाय के हो हैं ।
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