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२६६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
बुद्धिमानों के बोधार्थ रहा है, जबकि शान्तिसूरि ने तो स्पष्ट ही अबुद्ध-बोधार्थ अपना निरूपण किया है। यही कारण है, जहाँ शान्तिसूरि बाह्य-बोध्य वर्गीकरण पर सीमित रह गये हैं, जबकि नेमचन्द्र बहत गहन एवं गम्भोर ज्ञानी सिद्ध हए हैं । पर्याप्ति, कुल एवं योनि-जन्म आदि का विवरण न देना शान्तिसूरि के ग्रन्थ को कमी है और अध्यात्म विकास का आधार लेकर वर्णन करना जीवकांड की महती विशेषता है। यह भी स्पष्ट है कि दोनों ही जैन परम्पराओं में जीव सम्बन्धी विवरणों में काफी समानता है। जीव विज्ञान सम्बन्धी यह विवरण आधुनिक जीव वैज्ञानिक दृष्टि से समीक्षणीय है।
निर्देश १. (अ) नेमचन्द्र आचार्य; गोम्मटसार जीवकांड, परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास, १९७२ ।
(ब) शान्तिसूरीश्वर; जीवविचार प्रकरणम्, जैन मिशन सोसायटो, मद्रास, १९५० । २. नेमिचन्द्र, शास्त्री; तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा-२, दि० जैन विद्वत् परिषद्, सागर, १९७४,
पे० ४१७ । ३. जोहरापुरकर, वि० और काशलीवाल, क०; वीर शासन के प्रभावक आचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९७५,
पे० ७८ । ४. साध्वी चन्दना (सं०); उत्तराध्ययन, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९७६, पेज ३८० । ५. आयं श्याम प्रज्ञापना सूत्र-१,आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, १९८३, पेज ३९ । ६. महाप्रज्ञ, युवाचार्य; दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन, जैन श्वे० तेरापंथी महासभा, कलकत्ता-१, १९६७,
पेज ११६ ।
७. वट्टकेर, आचार्य; मूलाचार-१, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९८४, पेज १७६ ।
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