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पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
मेरे आगम-अध्ययन के प्रेरणा स्त्रोत भुवनेन्द्र कुमार शास्त्री बांदरी, सागर
लगभग १९८० से आ० विद्यासागर जी की सत्प्रेरणा से आगम-वाचना का कार्य वर्णी स्मारक भवन से प्रारंभ हुआ। मैं प्रतिवर्ष इसमें सम्मिलित होता हूँ। बड़े पंडित जी से भी मेरा अन्त: परिचय इन वाचनाओं में ही हुआ। उन्होंने मेरे संकोची स्वभाव को जिज्ञासु रूप में परिणत किया, आगम साहित्य उपलब्ध कराया और उनमें गति बनाई। वे इस प्रक्रिया में मेरे प्रेरणा स्रोत और स्थितिकारक भी बने। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं भी उनके सहज स्नेह, उदारता, सहभागिता का पात्र बन सका।
पंडित जी के जीवन काल के तीन अनुभवों के रूप में मैं अपनी वंदनांजलि प्रस्तुत करना चाहता हूँ। (अ) सत्य की विजय
१९२१ में कुछ दिनों के लिये पंडित जी बनारस में धर्माध्यापकी करते थे। वहाँ के तत्कालीन प्रबंधक से उनका कुछ मतभेद रहता था। उसने पंडित जी के विरुद्ध छात्रों को भड़का कर एक रिपोर्ट मंत्री जी के पास भिजवाई। मंत्री जी चकित हुए और जांच करने आये । सचमुच ही, कुछ लड़कों ने पंडित जी के विरुद्ध साक्षी दी। पर उसी समय वहां सागर के मा० नानकचंद्र जी भी मौजूद थे। उन्हें स्मरण आया कि आरोपित तिथि को तो उन्होंने पंडित जी को अपने यहां बुलाया था। उन्होंने मंत्री जी से यह बताया, तो वे प्रबंधक पर रुष्ट हुए और पंडित जी से क्षमा मांगने लगे। (ब) कष्ट सष्टिणता में आनंद
एक बार पंडित जी एवं डा. पन्नालाल जी सागर को महावीर जयंती के अवसर पर किसी बड़े नगर में भाषण हेतु आमंत्रित किया गया। भाषण के बाद समाज ने बस में बैठाकर सागर की ओर रवाना कर दिया । जब सागर १५-१६ किमी० रह गया, तब बस फेल हो गई। रात्रि का अधिकांश भाग दोनों ने सड़क पर लेट कर गुजारा । प्रातः चार बजे प्रसन्न मुद्रा में उन्होंने कहा, "पन्नालाल, विस्तर बांधो और पैदल चलो।"
दोनों वरेण्य पंडित अपना सामान लादे सुबह ७ बजे सागर पहुँचे । (स) संस्था के कार्य के लिये संस्था को ही किराया
एक बार पूज्य वर्णी जी एवं एक संस्था के पदाधिकारियों के आग्रह से पंडित जी बिना पारिश्रमिक लिये उस संस्था के एक कमरे में धर्मशिक्षा प्रचार-प्रसार की भावना से छह महीने तक रहे। काम पूरा होने पर पंडित जी कटनी वापस आ गये। कुछ दिनों बाद उक्त संस्था के मंत्री का छ: माह के कमरे के किराये का पत्र आया। पंडित जी ने उन्हें लिखा कि वे तो संस्था के काम से ही वहां रहे थे। इस पत्र की उपेक्षा कर संस्था ने किराये के लिये स्मरणपत्र दिया। पंडित जी ने किराया भेज दिया और उन्हें अपनी समाज-सेवा का ही प्रतिदान देना पड़ा।
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