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जीवविचार प्रकरण और गोम्मटसार जीव कांड २५५ इनकी कृतियों में 'जीवविचार प्रकरण के अतिरिक्त उत्तराध्ययन सूत्र की एक दोहा टोका भी है ऐसा प्रतीत होता है कि उसके अन्तिम अध्याय से ही इन्हें जीव विचार प्रकरण लिखने की प्रेरणा मिली होगी । इनकी मृत्यु की तिथि के विषय में मतभिन्नता पाई गई है । तपागच्छ पट्टावली के अनुसार, इनकी मृत्यु १०५५ ई० में हुई जबकि प्रभावक चरित के अनुसार इनकी सल्लेखना समाधि १०४० ई० में हुई। यदि इनका औसत आयुकाल साठ वर्ष भी माना जावे, तो अनुमानतः ये ९८८-१०४० के बीच जीवित रहे। इस आधार पर नेमचंद्राचार्य इनसे कुछ वरिष्ठ आचार्य सिद्ध होते हैं।
ita विचार प्रकरण की विषयवस्तु
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जीव विचार प्रकरण में चार अध्याय हैं । प्रथम अध्याय में संसार में विद्यमान विविध प्रकार के जोवों का वर्गीकरण कर संसारी जीवों का निरूपण किया गया है । दूसरे अध्याय में मुक्त जीवों का निरूपण है । तीसरे अध्याय में संसारी जीवों के शरीर की अवगाहना आयु स्वकाय स्थिति, प्राण एवं योनियों का वर्णन किया गया है। चतुर्थ अध्याय में सिखों के हो इन गुणों का वर्णन है । उपसंहार में मनुष्य जीवन में धर्मवृत्ति में प्रवृत्त होने का निर्देश है। अन्य तोन अध्यायों की तुलना में प्रथम अध्याय सबसे बड़ा है, पूर्ण ग्रन्थ का लगभग दो-तिहाई भाग हैं। सभी अध्यायों को विषयवस्तु का संक्षेपण यहाँ किया जा रहा है। यहाँ यह जान लेना भी उचित होगा कि बहुतेरी विषय-वस्तु मूल गाथाओं में नहीं है, फिर भी उसे रत्नाकर पाठक ने अपनी वृहद्वृत्ति टीका ( सोलहवीं सदी, १५५३ ई०) में अन्य शास्त्रों के आधार से संकलित कर दिया है । जीवों का सामान्य वर्गीकरण
जैन आर्ष परम्परा में जावों या सजीव जगत् के दो भेद किए गये हैं: संसारो और मुक्त या असंसारो त्रिलोक व्यापी सभी जीव संसारी कहलाते हैं और ये दो प्रकार के होते हैं : स्थावर और त्रस । शोताष्ण भयादि कष्टों के परिहार : के लिए जो प्रयत्न करते हैं, गतिशील होते हैं, वे त्रस कहलाते हैं । जा जीव इन कष्टों को दूर नहीं कर पाते या स्थिर रहते हैं, वे स्थावर कहलाते हैं । इनकी यह संज्ञा त्रस और स्थावर नाम कर्म के कारण भी मानी जाती है | ( इनसे गर्भावस्था, सुषुप्ति में साभाव एवं जलवायु अग्नि में त्रसत्व का प्रसंग नहीं आ पाता ) । उत्तराध्ययन' के युग में वायु, अग्नि और उदार (ढोन्द्रियादि) को उस और पृथ्वी, जल और वनस्पति को स्थावर कहा जाता था। इसके विपर्यास में, शान्तिसूरि ने स्थावर के पाँच भेद -- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति एव त्रस के चार भेद किए हैं। इनमें सिद्ध के जुड़ जाने के समस्त जीव जगत् दल प्रकार का हो जाता है। टीकाकार ने जीवाभिगम सूत्र का उद्धरण देते हुए जीवों के दो, तीन आदि दस तक, चौदह, चौबीस और बत्तीस भेद बताये हैं । गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, ज्ञान, आहार, भाषा, शरीर, दर्शन, तथा चरमभव के आधार पर तेरह रूपों को द्विविधता बताई गई है । इसी प्रकार सात रूपों की विविधता, चारों को चतुविधता एक रूप को पंचविता, शरीर व इन्द्रिय के आधार पर दो रूपों को षड्-विधता काय के आधार पर एक रूप को सप्त विनता, ज्ञान व यानि के आधार पर दा रूप को अविता दा
प्रकार को नवविधता एवं दशविधता जोवाभिगम से उद्धृत को गई हैं । मन, वचन एवं काय को प्रवृत्ति के आधार पर
बोस दण्डकों के रूप में जीवों के चौबीस भेद होते हैं
१. पृथ्वीकायिक आदि ५ के दंडक
२. २, ३, ४ इन्द्रिय जीवों के दंडक
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३. मनुष्य जीवों के दंडक
४ नारक जोवों के दडक
५. असुरकुमार आदि भवनवासियों के दंडक
६-८ व्यग्र ज्योतिष्क एवं वैमानिकों के दंडक
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