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________________ २२६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड गया है । शूबिंग के अनुसार पूर्व अंगों के समानान्तर ग्रन्थ रहे होंगे२२ । अंग ग्रन्थों को दोनों परम्परायें मानती है लेकिन दुर्भाग्य से इनका अधिकांश, मेघा और स्मरण शक्ति को कमो से, महावीर से ६८३ से १००० वर्ष के बीच लुप्त हुआ माना जाता है। वैदिक धारा के समान आगम-रक्षण को कुल परम्परा जैनों में नहीं रही, गुरु-शिष्य परम्परा भी बहुत दृढ़ नहीं रही। दिगम्बरों की तुलना में श्वेताम्बरों ने इस कमो का अनुभव किया और ४५३-६२ ई० तक उन्होंने तीन संगीतियां की और अन्त में आगमों को लिखित रूप दिया। इतने अन्तराल के कारण मूल में परिवर्तन व परिवर्धन की सम्भावना से आज के विद्वान् इन्कार नहीं करते। इसलिये उनकी प्रामाणिकता परीक्षणीय मानी जाती है। दिगम्बर परम्परा में ऐसी कोई संगीति नहीं हुई और उनके यहाँ अंग विलोपन को दर भी तीब्र है । हाँ, कुछ अंगों एवं पूर्वो पर आधारित कुछ ग्रन्थ अवश्य उनके पास है। शूबिंग और जैकोबी ने आगम विलोपन की मान्यता के विषय में बताया है कि यह सम्भव है कि उनकी विषय-वस्तु महत्वपूर्ण न हो अथवा उनके वर्णन से अनुयायियों में अरुचिकरता आती हो२६ । इस विषय पर गहन अनुसन्धान को आवश्यकता है। श्रुत की दूसरी कोटि अंगों पर आधारित है । उसे अंगों को समकक्षता नहीं है, पर वह भी महत्वपूर्ण है । अंग बाह्य ग्रन्थ कितने हैं. यह निश्चित नहीं है। पर दिगम्बर १४ और श्वेताम्बर ३४ ग्रन्थ इस कोटि में मानते हैं। ये अंग साहित्य से उत्तर काल की रचनाये हैं। श्वेताम्बर इस कोटि में पांचवी सदी तक की महत्वपूर्ण रच १०वीं सदी तक के ग्रन्थ समाहित करते हैं। दिगम्बर यह भी मानते हैं कि चौदह मूल अंग वाह्य ग्रन्थ भो विलुप्त हो गये हैं। उन्होंने अंग प्रविष्ट तथा अंग वाह्य श्रुत में विद्यमान समस्त वर्णों को संख्या १.८४४१०.१ बताई है। शास्त्रों में इस श्रुत के विभिन्न भागों की विषय वस्तु भो दो गई है। अनेक प्रकरणों में वर्तमान में उपलब्ध श्रुत इससे भिन्न पाया जाता है । दिगम्बरों की तुलना में श्वेताम्बरों को गणनायें भिन्न हैं। फिर भो, इससे श्रुत के व्यापक विस्तार का पता तो चलता ही है । इसके बावजूद भी, यह माना जाता है कि सम्पूर्ण श्रुत में उपलब्ध ज्ञान सम्पूर्ण ज्ञान का अनन्तवा भाग है क्योंकि सभी ज्ञेय को पूर्णतः शब्दों में नहीं व्यक्त किया जा सकता। शान प्राप्ति का अन्तिम चरण श्रुत उपरोक्त श्रुत के विषय एवं वर्णशंख्या में भिन्नता के बावजुद भो, ज्ञान प्राप्ति प्रक्रिया का अन्तिम चरण पूर्वचरण में प्राप्त ज्ञान को अभिलेखित करना है। ये अभिलेख ज्ञात ज्ञान का निरूपण एवं सप्रसारण करते है और अज्ञात क्षितिजों की ओर संकेत करते हैं। इनके वर्णनों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिये । इन्हें ज्ञान का अन्तिम बिन्द नहीं मानना चाहिये। वर्तमान श्रुत सर्वज्ञ-प्रणोत नहीं, अपितु उनके परम्परागत उत्तराधिकारियों द्वारा प्रणीत है, जो विभिन्न यगों में हुए हैं। अतः श्रत को विभिन्न यगों में उपलब्ध ज्ञान का अभिलेख मानना चाहिये। अनेक प्रकरणों में उनमें परिवधित या विरोधी दृष्टिकोण भी पाये जाते हैं। आधुनिक ज्ञान के आधार पर उनमें परिवर्धन सम्भव हो सकता है। यदि इन्हें अपरिवर्तनीय माना जावे, तो ज्ञान तालाब के जल के समान स्थिर हो जावेगा। इस धारणा से ज्ञान के नये क्षेत्रों के प्रति अनुपयोगितावादी दृष्टि विकसित हुई, इससे भारत आधुनिक दृष्टि से ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में पिछड़ गया। वह आगमिक युग में अपने समय में ज्ञान का अग्रणी था। इसलिये वैज्ञानिक तथा अन्य दष्टियों से स्थिर ज्ञान को धारण उपयोगी नहीं प्रतीत होती। अब ज्ञान एक जल प्रवाह के समान है, जिसमें संशोधन, नवयोजन एवं परिवर्तन सम्भव है, यदि ज्ञान प्राप्ति की उपरोक्त दिशाओं से इन प्रक्रियाओं का समर्थन हो। यह मत वर्तमान श्रुत से भी समर्थित है। प्रत्यक्ष के दो भेद, काल के द्रव्यत्व को मान्यता, अष्टमूलगुणों के विविध रूप, भौतिक इन्द्रियों की प्राप्यकारिता सम्बन्धी पूज्यपाद और वीरसेन की मत-भिन्नता, विद्यानन्द को धारावाही ज्ञान को प्रमाणता आदि के उदाहरण इसी आर संकेत देते है। वस्तुतः यह अचरज की बात हो है कि परिवर्तनशील विश्व में उससे सम्बन्धित ज्ञान को स्थिर एवं अपरिवर्तनीय माना जावे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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