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मन्त्र योग और उसकी सर्वतोभद्र साधना २१३ गया है । यहाँ मनन धर्मिता ही उस शक्ति को प्रदान करती है। मनन के लिये मन का नियमन नितान्त अपेक्षित है क्योंकि "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः" और "चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्" के अनुसार इसकी चञ्चलता भी दुर्दम्य है। अतः मनन पर हो मन्त्र की सिद्धि निर्भर है। इससे हो चित्तवृत्ति का निरोध होकर आध्यात्मिक साधना के द्वार खुलते हैं तथा आत्म-विकास का पथ प्रशस्त होता है । इसलिये कहा गया है कि मन्त्रों के जप से, योग, पारणा, ध्यान, व्यास एवं पूजन से जो सिद्धियाँ उपलब्ध होती हैं, वे अकल्पित और चिरकाल सुख देने वाली हैं । अन्त में वे ब्रह्मपद की प्राप्ति में भी सहायता करने वाली है। मन्त्रयोग के साथ के लिये जप की प्रक्रियाओं का योग को प्रक्रियाओं के साथ तादात्म्य-स्थापन भी आवश्यक माना गया है। यह तादात्म्य आत्म शरीर की रचना को मन्त्र वर्णों से समन्वित मानकर उसे वर्णात्मक स्वरूप प्रदान करने से सम्भव होता है। वस्तुतः योग-साधना में प्रवृत्त होने से पहले हो शरीरतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना अत्यावश्यक है। प्रत्येक जीव का शरीर शुक्र, रक्त, मज्जा, मेद, मांस, अस्थि और त्वग्रूप सप्तधातुओं से बना है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश से कारण यह पञ्चभूतात्मक भी है । इसी कारण इसमें प्रत्येक भूत के अधिष्ठान के लिये स्वतन्त्र स्थान 'चक्र' कहते हैं। अतः योगी मूलाधारादि आन्तरिक चक्रों में पञ्चभूतों का भूतात्मक शरीर में अन्यत्र भी कुछ चक्र हैं, जैसे ललाटदेश में 'आज्ञाचक्र' है । इसमें पञ्चतन्मात्र तत्त्व, इन्द्रिय तत्त्व, चित्त और मन का स्थान है । उसके भी ऊपर ब्रह्मरन में एक 'शतदल चक्र' हैं जिसमें महत् तत्त्व का स्थान है। इसके ऊपर महाशून्य में विद्यमान 'सहस्रायल-व' है जहां प्रकृति-पुरुष कामेश्वरो और पुरुष पृथ्वी तत्व में प्रारम्भ करके क्रमशः परमात्मा तक सभी तत्वों का इन चक्रों की मन्त्रयोगात्मक साधना में प्रत्येक चक्र के मूल नायक देव, उनके साथ समन्वय करके जप करने का विधान है। इन चक्रों के सृष्टि सार जप करने से विशिष्ट लाभ होता है ।
हैं । इन्हें यौगिक भाषा में इनके अतिरिक्त इस प
कामेश्वर परमात्मा' विराजमान है। बागो इस भौतिक शरीर में, ध्यान किया करते हैं। उनकी अधिष्ठात्री देवो तथा अपने इष्टमन्त्र का स्थिति और संहार क्रमों का ज्ञान करके कर्मा
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युक्त होने के नियत किये गये ध्यान करते हैं।
है
शास्त्रकारों ने मन्त्रोच्चार के मुखगत पाँच अवयवों को भी पञ्चभूतात्मक बतलाया है। ओठ-पृथ्वी तत्त्वात्मक है, जिल्ला जल तत्वात्मक, दाँत अग्नि तत्त्वात्मक, तालु वायु तत्वात्मक और कण्ठ आकाश तत्वात्मक है। मन्त्रों के अक्षरों का उच्चारण इन्हीं पाँच स्थानों से होता है, अतः उपर्युक्त ज्ञानपूर्वक उच्चरित वर्ग अपने-अपने तत्व को प्रबल बनाते हैं तथा तदनुसार ही फल भी देते हैं। शरीर रूपी ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत दोन ब्रह्माण्ड हैं। शरीर का मध्यम भाग 'स्वह्माण्ड ' है, ऊपर का भाग 'पराब्रह्माण्ड है तथा अधोभाग 'अपरब्रह्माण्ड ' स्वब्रह्माण्ड का सम्बन्ध विराट् तत्व से परा ब्रह्माण्ड का विद्युत् तत्व से और अपराह्माण्ड का शून्य तत्त्व से है। स्व में कारण शक्तियां परा में सूक्ष्म शक्तियाँ एवं स्थूल शक्तियाँ वास करती हैं। मन्त्रों के जिन अक्षरों अथवा शब्दों से स्व में प्रकम्पन होता है, उनसे शून्यन्तस्व सम्बन्धित स्थूल शक्तियों का विकास होता है। उदाहरण के लिये 'ऐं' के उच्चारण से परा में प्रकम्पन होता है, अतः उसके उच्चारण से सूक्ष्म शक्तियों जागृत होती हैं, 'ह्रीं' के उच्चारण से स्व में से कारण शक्तियाँ उद्बुद्ध होती हैं 'श्री" के उच्चारण से आरा में प्रकम्पन । होती हैं। ये शक्तियां जब पूर्णरूप से जागृत हो जाती है, तो ये साधक के सम्मुख प्रकट होकर यथेष्ट फल देती है।
अपरा में
प्रकम्पन होता है, अतः उसके उच्चारण
होता है, जिससे स्थूल शक्तियाँ प्रबुद्ध भावानुसार एक विशेष रूप धारण कर उसके
'शब्दयोग और वाग्योग' भी मन्त्र साधना के हो प्रकारों में आते हैं । शैवागमों के अन्तर्गत 'व्याकरणागम' में इस योग की साधना का परिचय मिलता है। इसमें व्याकृत शब्द का वैखरी दशा से मध्यमा में उतर कर पश्यन्ती में प्रवेश ही योग साधना का मुख्य लक्ष्य है । पश्यन्ती दशा से परा-दशा में अव्याकृत पद में गति और स्थिति स्वाभाविक नियमानुसार स्वतः ही होती है। वे किसी साधना के आन्तरिक लक्ष्य नहीं होते
किन्तु वैखरी के स्केन्द्रिय प्राह्म शब्द
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