________________
सुख-शान्ति की प्राप्ति का उपाय : सहज राजयोग १७१
मन को निर्मल बनाने, निर्विकार करने तथा विकारों को निर्वीज करने के उपाय का नाम ही योग है। .. योग ऐसी सूक्ष्मतम अग्नि है जिससे मनुष्य के विकर्म दग्ध होते हैं। योग संस्कारों के परिवर्तन का भी एक अमोघ उपाय है। पुरानी आदतें छोड़ने के लिये योग साधन से ही आध्यात्मिक शक्ति मिलती है और मनोबल मिलता है । आत्मशक्ति द्वारा शान्ति और आनन्द का ऐसा फुब्बारा-सा मनुष्य के मन पर पड़ता है जो उसका सारा मैल धो डालता है और चांदनी के समान उसे शीतल और रसमय बना देता है। इस आनन्द की विशेष अनुभूति का ही नाम योग है । योग एक उत्तम विज्ञान है जो सभी प्रकार के सुख सहज एवं निःशुल्क ही प्रदान करता है।
मोग के प्रकार और लक्षण
आनन्ददायी योग विद्या के लिये भारत प्राचीन काल से ही सूज्ञात है। आधुनिक जीवन में योग की सर्वाधिक आवश्यकता है क्योंकि मानव विविध प्रकार की विषमता, अनियमितता तथा अनुपयुक्तता के वातावरण में रह कर मानसिक तनावों से घुट रहा है। ये तनाव व्यावसायिक, साझेदारी, सेवावृत्ति, औद्योगिक, आर्थिक, उपभोक्ताउत्पादक, पड़ोसी-विदेशी, धार्मिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, भाषा, जाति आदि के समान विविध सम्बन्धों में समुचित सामंजस्य के अभाव में होते हैं। अज्ञान, अपवित्र संस्कार, पुरुषार्थ-विघ्न एवं पूर्वकृत अशुभ कर्म इन तनावों को और भी दुखमय बनाते हैं। इस तनाव से मुक्ति और आनन्द प्राप्ति ही योग का प्रमुख लक्ष्य है। इस दृष्टि से योग एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। पश्चिमी देशों का यह अनुभव है कि स्थायी सुख-शान्ति मात्र भौतिक साधनों से प्राप्त नहीं हो सकती। ये मानसिक तनाव को शान्त नहीं कर पाते । इसीलिये वहाँ अनेक बीमारियां बढ़ रही हैं। योग से ही मानसिक तनाव दूर होता है, मन को शान्ति मिलती है तथा शरीर और मस्तिष्क शक्तिशाली होता है। इसीलिये अनेक पश्चिमी लोग भारत में योग सीखने आते हैं।
भारत में योग के चार प्रकार प्रचलित हैं : भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग और राजयोग। इनमें क्रमशः समर्पण. आत्मनिरीक्षण, अनासक्ति एवं मनोनियंत्रण का प्राधान्य रहता है। इनमें राजयोग सबसे सहज माना जाता है। पतंजल का योग भी राजयोग माना जाता है। ब्रह्मकुमारियों का योग भी राजयोग माना जाता है। वस्तुतः योग के वे सभी रूप राजयोग माने जाते हैं जो सहज हों, जिसे सामान्य जन और राजजन भी कर सके, एवं जिसमें आसान एवं हठक्रियाओं का बाहल्य एवं प्राधान्य न हो। राजयोग में 'मन जीते जगत् जीते' की उक्ति चरितार्थ होती है। इस योग के अभ्यास से उत्तर जन्म में राज एवं देव पद प्राप्त होता है। मानव तन्त्र में बुद्धि को राजा कहते हैं। वह मन रूपी मंत्री व कर्मेन्द्रिय रूपी प्रजा को नियंत्रित करती है, अतः इसे बुद्धियोग भी कहते है। गोता में कृष्ण ने कहा है कि उन्होंने यही योग ब्रह्मा को सिखाया। ब्रह्मा ने इसे मनु को सिखाया और मनु ने इक्ष्वाकुवंशियों को सिखाया । इस प्रकार राजयोग अत्यंत ही महत्पूर्ण तंत्र है जो मानव को सुखी बनाने में सहायक है। वस्तुतः मुझे यह खेद की बात लगती है कि वर्तमान में भारत के अधिकांश योगाश्रमों में अनेक प्रकार के हठयोग अधिक सिखाये जाते हैं। इससे शरीर को तो अवश्य लाभ होता है, परन्तु इनसे उच्चतर आत्मिक शक्तियों को जगाने में पूर्ण सफलता नहीं मिलती। आधुनिक चिकित्सकों का भी कहना है कि मनुष्य के अस्सी प्रतिशत रोग मानसिक तनाव के कारण होते हैं। जब तक हमारा मन नहीं ठीक होता, तब तक हमारा शरीर भी स्वस्थ नहीं रह सकता। अतः मन को स्वस्थ और निर्विकार बनाने के लिये राजयोग ही सर्वोत्तम माना जाता है। बुद्धियोग, सन्यासयोग, समत्वयोग तथा पुरुषोत्तम योग आदि विविध नाम इसी पद्धति के विविध पहलू हैं । अन्तर-रहस्यों, आत्म-परमात्म रहस्यों के भेदक होने से इसे रहस्ययोग भी कहा जाता है।
योग के सभी प्रकारों में 'योग' शब्द महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ जोड़ना, मिलन, मिलाना या मिलाप होता है। आध्यात्मिक अर्थ में योग शब्द से आत्मा और परयात्मा के मिलन का बोध होता है। शरीर तंत्र के चक्रों के अर्थ में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org