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________________ १३४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड शास्त्री के मस्तिष्क का विवरण अत्यन्त विस्तृत एवं सूक्ष्म है। मस्तिष्क की रचना और उसके घटकों के विशिष्ट कार्यों के अध्ययन में रंजन तकनीक, इलैक्टान माइक्रोस्कोप तथा जीव-रासायनिक पद्धतियों से बड़ी सहायता मिली है। इससे हमें मस्तिष्क के अंगरंग का पूर्णतः तो नहीं, पर पर्याप्त ज्ञान हुआ है। इस ज्ञान से हम अनेक निरीक्षणों की तर्क संगत व्याख्या कर सकते हैं। शरीर तन्त्र में मस्तिष्क और मेरुदण्ड (सषम्ना) केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र के महत्वपूर्ण घटक है। ये मकान के बिजली के स्विचबोर्ड के समान हमारे तन्त्र को समन्वित, संचालित, नियन्त्रित एवं विकसित करते हैं। शास्त्रों में मन के तीन भेद बताये गये है-चेतन (विचार, क्रिया), अर्धचेतन (स्वप्नादि) और अचेतन या आन्तरिक (शून्यता)। ये भेद उसके सूक्ष्मतर रूपों को व्यक्त करते हैं । शरीर-शास्त्री केवल चेतन मन की बात करता है । सामान्यतः मस्तिष्क हमारे कपालकोटर में भ्रकुटी के पीछे से सिर के पिछले भाग तक फैला रहता है । यह एक जटिलतम तन्त्र है। इसका भार १२-१५०० ग्राम होता है और आयतन १.२-१.५ लीटर होता है। सामान्यतः मस्तिष्क के पाँच भाग होते हैं जिनमें प्रमस्तिष्क (मुख्य भाग), अनुमस्तिष्क व मध्यमस्तिष्क मुख्य होते है । प्रत्येक भाग में सतन्तुक न्यरान कोशिकायें और उनके गुच्छक-स्नायु या तन्त्रिकायें होती है। इसकी कोशिकाओं की कुल संख्या १३० करोड से अधिक होती है। इनका विस्तार एक सेमी० के दस हजारवें भाग १०-४ के बराबर होता है। प्रत्येक कोशिका लगभग पांच लाख सम्पर्क स्थापित कर सकती है। प्रत्येक कोशिका में संवेदन या उत्तेजन के आने एवं उनके प्रेषणनियन्त्रण की पृथक्-पृथक व्यवस्था रहती है। अनुमस्तिष्क या मध्यमस्तिष्क तो मस्तिष्क के मुख्य भाग के कार्य में सहायक होते हैं । मस्तिष्क में सारणी १ के अनुसार ग्रन्थियाँ भो होतो हैं जिनके स्रावों से मन और शरीर पुष्ट और नियन्त्रित होता है। (चित्र : १)। / ..' • कॉरोनल सजिटा तय लँब्डॉयड १५/सीवन ललाट' स्फीनॉयड प्रत्रु k नासा - एथ्मोयड 'प्राक्सिपिटल पायगोमटिकट अस्थि मैक्सिला immR: बाह्य कर्ण कुहर 6 मैस्टॉयड प्रवर्ध स्टाइलॉयड प्रवर्ध टैम्पोरल-मेडिबल संधि मस्तिष्क का मुख्य भाग दूर से देखने पर धूसर दिखता है और इसके अन्दर श्वेत द्रव्य रहता है। इसके दो भाग या गोलाध होते है। दाहिना गोलाधं रचनात्मकता, स्रजनशीलता, अन्तः प्रज्ञा, प्रतिभा, इन्द्रियातीत क्षमता तथा आकाशीय चाक्षुषीकरण क्षमता एवं चित्त शक्ति का प्रतीक है। यह परानुकम्पी तन्त्रिका-तन्त्र एवं सहज क्रियाओं का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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