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आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन १०१
विषय के निरूपण के अन्तरों को वीरसेन ने जयधवला में नयविवक्षा के आधार पर सुलझाने का प्रयत्न किया है । इसी प्रकार, उच्चारणाचार्य का यह मत कि बाईस प्राकृतिक विभक्ति के स्वामी चतुर्गतिक जीव होते हैं-यतिवृषम के केवल मनुष्य-स्वामित्व से मेल नहीं खाता । भगवती आराधना में साधुओं के २८ व ३६ मूलगुणों की चर्चा के समय कहा है, "प्राकृत टीकायां तु अष्टाविंशति गुणाः। आचारवत्वायश्चाष्टी-इति षट्त्रिंशत् ।" इसी ग्रन्थ में १७ मरण बताये है पर अन्य ग्रन्थों में इतनी संख्या नहीं बताई गई है।८
शास्त्री ने बताया है कि 'षट्खंडागम' और कषायप्राभूत' में अनेक तथ्यों में मतभेद पाया जाता है। इसका उल्लेख 'तन्त्रान्तर' शब्द से किया गया है। उन्होंने धवला, जयधवला एवं त्रिलोकप्रज्ञप्ति के अनेक मान्यता भेदों का भी संकेत दिया है। इन मान्यता भेदों के रहते इनकी प्रामाणिकता का आधार केवल इनका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य ही माना जावेगा।
आचार-विवरण संबंधी विसंबतियाँ
शास्त्रों में सैद्धान्तिक चर्चाओं के समान आचार-विवरण में भी विसंगतियां पाई जाती हैं। इनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है ।
श्रावक के आठ मूलगुण--श्रावकों के मूलगुणों की वरंपरा बारह ब्रतों से अर्वाचीन है। फिर भी, इसे समन्तभद्र से तो प्रारम्भ माना ही जा सकता है। इनकी आठ की संख्या में किस प्रकार समय-समय पर परिवर्धन एवं समाहरण हआ है; यह देखिये :१९
१. समन्तभद्र २. आशाधर ३. अन्य
तीन मकार त्याग तीन मकार त्याग तीन मकार त्याग
पंचाणु ब्रत पालन पंचोदुम्बर त्याग पंचोदुम्बर त्याग, रात्रि भोजन त्याग, देवपूजा, जीवदया, छना जलपान
समयानुकूल स्वैच्छिक परिवर्तनों को तेरहवीं सदी के पण्डित आशाधर तक ने मान्य किया है। यहाँ शास्त्री • समन्तभद्र की मूलगुण-गाथा को प्रक्षिप्त मानते हैं ।
बाईस अभक्ष्य-सामान्य जैन श्रावक तथा साधुओं के आहार से सम्बन्धित भक्ष्यामक्ष्य विवरण में दसवी सदी तक बाईस अभक्ष्यों का उल्लेख नहीं मिलता। मलाचार एवं आचारांग के अनुसार, अचित किये गये कन्दमूल, बहुवीजक ( निर्वीजित ) आदि की भक्ष्यता साधुओं के लिये वर्णित है ।२१ पर उन्हें गृहस्थों के लिये भक्ष्य नहीं माना जाता। वस्तुतः गृहस्थ ही अपनी विशिष्ट चर्या से साधुपद की ओर बढ़ता है, इस दृष्टि से यह विरोधाभास ही कहना चाहिये । सोमदेव आदि ने भी गृहस्थों के लिये प्रासुक-अप्रासुक की सीमा नहीं रखी। संभवतः नेमिचंद्र सूरि के प्रवचन सारोदार२७ में और बाद में मान विजय गणि के धर्मसंग्रह २८ में दसवीं सदी और उसके बाद सर्वप्रथम वाइस अमक्ष्यों का उल्लेख मिलता है। दिगंबर ग्रन्थों में दौलतराम के समय ही ५३ क्रियाओं में अभक्ष्यों की संख्या बाईस बताई गई है। फलतः भक्ष्याभक्ष्य विचार विकसित होते-होते दसवीं सदी के बाद ही रूढ़ हो सका है।
आहार के घटक--मक्ष्य आहार के घटकों में भी अन्तर पाया जाता है। मूलाचार की गाथा ८२२ में आहार के छह घटक बताये गये हैं जबकि गाथा ८२६ में चार घटक ही बताये हैं। ऐसे ही अनेक तथ्यों के आधार पर मूलाचार का संग्रह ग्रन्थ मानने की बात कही जाती है।"
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