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९० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
कोई व्यक्ति अपने निकट के गिरजाघर में जावे। सभी गिरजाघरों में प्रार्थना का एक निश्चित समय रहता है । रविवार का प्रातः का समय-सप्ताह में केवल एक दिन । इस दिन सभी सदस्य समय पर गिरजाघर पर पहुँचते हैं, सामूहिक प्रार्थना करते हैं, धर्मगुरु का प्रवचन सुनते हैं। इस कार्यक्रम को ईसाइयों को भाषा में 'सविस' कहा जाता है । यह प्रायः ९० मिनट को होती है । धर्मगुरु पहले से ही यह तय करता है कि किस हफ्ते बाइबिल का कौन-सा अंश पढ़ा जायेगा या कौन-सी प्रार्थना होगी। वहां पर्याप्त संख्या में बाइबिल और प्रार्थना पुस्तकें रहती हैं । हम जब भी वहाँ गये, हमें, सदैव ये पुस्तकें मिली। कुछ लोग अपनी निजी पुस्तकें भी लाते हैं । 'सर्विस' के समय गिरजाघर प्रायः पूरा भर जाता है, पर यह कभी नहीं देखा गया कि लोग अनियंत्रित हों, शोरगुल करें या आपसी बातें करने लगें । 'सविस' के समय चर्च-संगीत या पादरी की आवाज के सिवा कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ती। लोग अपने-अपने स्थानों पर बैठे रहते हैं। हमने वहाँ कभी यह नहीं देखा कि किसी व्यक्ति विशेष के आने पर किसी अन्य व्यक्ति ने स्थान छोड़ा हो या किसी से कोई स्थान विशेष खाली करने के लिये कहा गया हो। 'सविस' के समय 'आरती' से इतना दान प्राप्त हो जाता है कि इससे चर्च का व्यवस्था व्यय, धर्मगुरु की आजीविका राशि तो पूरी होती ही है, इसका कुछ अंश सदैव धर्म प्रचार एवं साहित्य प्रणयन के लिये रखा जाता है ।
पुस्तकालय-विज्ञानी होने के कारण, प्रकाशित पुस्तकों के सम्बन्ध में अपने अनुभव से मैं यह कह सकता हूं कि वहाँ धार्मिक विषयों पर जितनी पुस्तकें छपती व बिकती हैं, उतनी कहीं नहीं। प्रत्येक पुस्तक के कम-से-कम --10-११ हजार प्रतियों से कम के संस्करण नहीं निकलते। बाइबिल का तो प्रत्येक संस्करण १-१ लाख प्रतियों का
होता है। इससे भी अधिक आश्चर्य की बात शायद आपको यह लगे कि आजकल ही नहीं, प्रारम्भ से ही बाइबिल शायद दुनिया की सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तक रही है। इसका प्रतिवर्ष कोई-न-कोई संस्करण प्रकाशित होता ही रहता है और ईसाई धर्म के सम्बन्ध में आलोचना, प्रत्यालोचना और विवेचना की पुस्तकें भी मुद्रित होती रहती हैं। धार्मिक पुस्तकों के सम्बन्ध में हमने एक बात यह भी देखी कि वहां केवल ईसाई धर्म। ही नहीं, अन्य धर्मों के सम्बन्ध में भो पुस्तके प्रकाशित होती हैं और इन पुस्तकों के लेखक और प्रकाशक प्रायः ईसाई ही होते हैं। यह बात भी कुछ अटपटी लग सकती है कि जैन धर्म या अन्य धर्मों के सम्बन्ध में जितनी विस्तृत जानकारी मुझे अपने विदेश-प्रवास के दौरान इन विदेशो पुस्तकों से मिली, उनती अपने जीवन के प्रारम्भिक पच्चीस वर्षों में भारत में अपने घर में, संस्थाओं में या जैन परिवारों के बीच रहने पर भी नहीं हई। इन पुस्तकों से मुझे धर्मों के सम्बन्ध में तुलनात्मक दृष्टि से सोचने को दृष्टि निली और यह भी जानने की इच्छा हुई कि अन्य धर्मों की क्या विशेषतायें हैं? विदेशों में मझे जितने अधिक विविध धर्मावलम्बियोंसे मिलने और उनके साथ रहने का अवसर मिला, उससे मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि अन्य धर्मों के सम्बन्ध में मेरी पूर्वाग्रह या संकुचित दृष्टि लगभग दूर-सी हो गई। सम्भवतः यहा कारण है कि भारत लौटने पर जिस कार्यालय में मेरी नियुक्ति हुई, वहाँ सवमें पहली नियुक्ति मैंने एक अन्य धर्मावलम्बी की ही कराई।
इंग्लैंड में रहते हुए मैंने एक अन्य तथ्य भी देखा कि वहां की पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रायः धार्मिक विषयों पर विवादास्पद लेख प्रकाशित होते रहते हैं। ये लेख प्रायः ऐसे होते हैं जिनकी चर्चा काफी समय तक होतो रहती है। इनके विषय में लम्बे समय तक प्रतिक्रियायें छपती रहती हैं। इन लेखों में प्रायः धर्म सम्बन्धी किसी नई बात या व्याख्या को उठाया जाता है पर यह आवश्यक नहीं कि ये लेख केवल ईसाई जगत से ही सम्बन्धित हों। दैनिकसाप्ताहिक पत्रों में अन्य धर्मों के सम्बत्व में भी लेख प्रकाशित होते हैं और लोग उन्हें शौक से पढ़ते हैं ।
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