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७२ ५० जगमोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
अपेक्षित है। साधु शब्द के ये दोनों ही विहित अर्थ हैं। साधना का अर्थ संसार में मान्य तथाकथित भौतिक एवं मानसिक सुखों की ओर निरपेक्षता की प्रवृत्ति को विकसित करना है। इसके लिये उत्तराध्ययन में साधु के प्रायः २५ गुणों की चर्चा की गई है। ये गुण साधु के मन-वचन-शरीर को सांसारिक विकृतियों से नियन्त्रित करते हैं और रत्नत्रय की प्राप्ति में सहायक होते हैं । समवायांग और आवश्यक नियुक्ति में पांच महाबत, पंचेन्द्रिय निग्रह, कपायनिग्रह, मन-वचन-काय द्वारा शुम प्रवृत्ति, वेदना सहता, मरणान्त कष्टसहना आदि साधु के २७ मूल गुणों की चर्चा है। मूलाचार में पांच महाव्रत, पंचेन्द्रिय जय, पांच समिति, छह आवश्यक तथा केशलोंच, अस्नान आदि सात गुणों को मिलाकर २८ मूल गुणों की चर्चा है। इनमें ही आचारवत्ता, श्रुतज्ञता, प्रायश्चित, एवं आसनादि की क्षमता, आशापायदर्शिता, उत्पीलकता, अस्राविता एवं सुखकारिता के आठ गुण मिलने पर उत्तम साधु के ३६ गुण हो जाते हैं। कुंदकुंद साधु के चारित्र प्रधान केवल १८ गुण ( ५ महाबत, ५ इन्द्रियनिग्रह, ५ समिति एवं ३ गुप्ति) मानते हैं। इसके उपरान्त अनेक आचार्यों ने भिन्न भिन्न रूप से ३६ गुणों का निरूपण किया है ( सारणी ।)। बीसवीं सदी में आचार्य विद्यानन्द १२ तप, १० धर्म, पंचाचार, छह आवश्यक और तीन गुप्तियों के रूप में ३६ गणों को मान्यता देते हैं। इनमें कुछ पुनरूक्तियां प्रतीत होती हैं। तप चारित्र का ही एक अंग है, फिर तपाचार और चारित्राचार को पृथक् से गिराने की आवश्यकता नहीं है। दश धर्म मन-वचन-काम के ही नियंत्रक हैं, फिर
गुप्तियों की क्या पृथक् से आवश्यकता है ? संभवतः समितियों के मूल गुणों में आ जाने से गुप्तियों को इन उत्तर., गुणों में लिया गया हो। स्थिति कल्प भी प्रायः मूल गुणों में आ जाते हैं। अतः साधु के मूल गुण और उत्तरगुण-दोनों
ही २८ से अधिक समुचित नहीं प्रतीत होते । जब १८ से ३६ की परम्परा बनी, तब परिवर्तन तो हुआ ही, पुनरावर्तन भी हुआ । वस्तुतः अनेक पुनरावर्तन भी शिथिलता के प्रेरक होते हैं । यहाँ कुछ उदाहरण दिये जा रहें हैं। इन्हें ध्यान ___ मूल गुण
उत्तरगुणों में पुनराबर्तन १. छह आवश्यक
छह आवश्यक (अ) प्रतिक्रमण
क्रियायुक्त, प्रतिक्रमी ( स्थितिकल्प ) २. पंच महाव्रत
ब्रती, सद्गुणी ( स्थिति कल्प ) आचारवत्व ३. आचेलक्य
दिगम्बरत्व ४. क्षितिशयन
अशम्यासन में रख कर पुनरावर्तनों को दूर करना चाहिये । साथ ही अर्धगर्मी गुणों की संख्या न्यूनतम की जानी चाहिये । इस पुनरावर्तन के कारण मूलगुण और उत्तरगुणों का भेद ही समाप्त हो जाता है। फलतः साधु के आवश्यक गुणों का पुनरीक्षित निरूपण आवश्यक है। ये गुण साधु के लिये आदर्श है। श्रावकों को इनमें प्रेरणा मिलती है। धवला में भी सोलह प्राकृतिक उपमानों से साधु के गुणों को लक्षित किया गया है। साधु और आचार्य
यह निश्चित नहीं है कि जनों में बहुप्रचलित णमोकार मंत्र कब आविर्भूत हुआ, पर उसकी कालिक भावना सर्वतोभद्र रही है। उसमें श्रावक धर्म के साधक से आगे की श्रेणियों की पूज्यता का विवरण है। पूज्यों एवं नमस्कार्यों की आधारशिला साघु-श्रेणी है। साधना एवं सरलता की इस कोटि से आगे उपाध्याय और आचार्यों की कोटि है। ऐसा माना जाता है कि साधु आचार प्रमुख होता है और अन्य कोटियां आचार प्रमुखता के साथ दर्शन-ज्ञान बहुल भी होती है। इस लिये उनकी कोटि उच्चतर होती है। कोटि को उच्चता उनके कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों को बढ़ाती है और इसके फलस्वरूप उन्हें कुछ अधिकार भी देती है। दिगम्बर परम्परा में उपाध्याय नगण्य ही हुए हैं, पर
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