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धार्मिक परिप्रेक्ष्य में आज का श्रावक
डॉ. सुभाष कोठारी शोध अधिकारी, आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, उसे समाज, परिवार, राष्ट्र से जुड़े होने के कारण प्रत्येक क्षेत्र में अपने कार्य व्यवहार को करना पड़ता है और करता है। २५०० वर्ष प्राचीन महावीर समाज की तुलना वर्तमान समाज से करें, तो हम पाते हैं कि महावीर के प्रचलित सिद्धान्त व उपदेश दोनों ही समयों में युगानुकूल थे व है, आवश्यकता सिर्फ उसे अन्तःस्पर्शित कर समझने की है। हाँ, यह अवश्य है कि देश काल की परिस्थितियों से आज का मानव ताकिक व वक्र हो गया है जब कि महावीर युगीन मानव भद्र व सरल प्रकृति का था।
विभिन्न धर्म ग्रन्थों में साधना की मुख्य रूप से दो ही विधियां प्रचलित है-प्रथम गृहस्थावस्था का त्याग कर संन्यासी, योगी, मुनि व भिक्षु बनना व द्वितीय ग्रहस्थावस्था में रहकर श्रावक, उपासक, अनुयायी व गृही बनना । दोनों ही के पालन करने योग्य कुछ नियम पूर्वाचार्यों ने धर्मग्रन्थों में प्रतिपादित किये है। यह एक अलग बात है कि वे नियम कहाँ तक पालन होते हैं। जैन आचार ग्रन्थों में श्रावक व उसके पालन करने के नियमों का विस्तार वणित है।
श्रापक
जैनागम ग्रन्थों में उपासक, श्रमणीपासक, गिही, अगार व श्रावक शब्द ग्रहस्थ के लिये प्रयुक्त हुए है। पं० आशाधर ने सागारधर्मामृत में पंच परमेष्ठी का भक्त, दान व पूजन करने वाला, मूलगुण व उत्तरगुण का पालन करने वाला श्रावक होता है, यह कहा है।' एक श्रावक शब्द "श्रु" धातु से निष्पन्न है जिसका अर्थ है सुनने वाला। अर्थात् जो प्रतिदिन साधुओं से सम्यक दर्शन आदि सामाचारो को सुनता हो, वह परम श्रावक है ।२ श्रावकाचार को पूर्वपीठिका
एक ग्रहस्थ को श्रावक कहलाने की स्थिति तक पहुँचने के लिये कुछ विशिष्ट गुणों को अपने अन्तः चेतन में स्थान देना आवश्यक होता है। वैसे इनका कोई आगमिक उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि यह मानकर चला जाता है कि एक सद्गृहस्थ में ये गुण तो होगें ही। उत्तरवर्ती आचार्यों, जिनमें हरिभद्र-धर्म-बिन्बु प्रकरण 3
१. सागार धर्मामृत १, १५ । २. श्रावक प्रज्ञप्ति, गाथा २। ३. शास्त्री, देवेन्द्र मुनि : जैन आचार : सिद्धान्त व स्वरूप, पृष्ठ २३७ । ४. हेमचन्द्र, योगशास्त्र : ११४७-५६ ।
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