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६४ पं० जगमोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
जिसकी सुन्दरता का बखान करते नहीं थकता, उस चाँद पर आज के वैज्ञानिक छलांग लगा रहे हैं। जन्म और मृत्यु जिनसे जीवन की सीमाएं निर्धारित होती हैं, उन्हें भी आज का विज्ञान नियन्त्रित करने पर लगा है। जन्म और मृत्यु की दरें घटायी जा रही हैं। अब तो जन्म के लिए मां का गर्भ आवश्यक नहीं रह गया है, उसके लिए तो परखनली ही पर्याप्त है । वैज्ञानिकों ने अपने ही जैसा मनुष्य ( रोबोट ) भी तैयार कर लिया है, जो प्रायः सभी मानवीय कार्यों को कुशलतापूर्वक कर लेता है। आत्मा या चेतना जिसे किसी इन्द्रिय से जान पाना मुश्किल है, उसे भी वैज्ञानिकों ने शीशे में बन्द करने का प्रयास किया है। सूखा ओर बाढ़ की स्थितियों में ईश्वर की दुहाई दी जाती थी, किन्तु अब इनके लिए भी ईश्वर की जरूरत नहीं होगी। विज्ञान सभी मानव क्षेत्रों में पहुंच चुका है। धर्म में प्रधानता पाने वाला ईश्वर महत्त्वहीन सा जान पड़ता है। ऐसे तो निरीश्वरवादी धर्मों ने पहले ही ईश्वर को अनावश्यक घोषित कर दिया है, परन्तु विज्ञान ने तो ईश्वर की स्थिति को और नाजुक बना दिया है । बी० एन० हेफर ने लिखा है :
"ईश्वर मानव के लिये अनावश्यक और लुप्तप्राय हो गया है ।"3
इसमें कोई शक नहीं कि आज का मानव अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों को देखकर इतरा रहा है और उसे अपनी गरिमा के सामने ईश्वर तथा धर्म तुच्छ दिखाई पड़ रहे हैं। किन्तु जिस परमाणु शक्ति की खोज ने उसे विकास की चोटी पर पहुंचा दिया है उसी में मानव का सर्वनाश भी निहित है । विज्ञान आकाश में अपना विश्राम स्थल बना सकता है पर वह स्थायी रूप लेने के बजाय ध्वस्त भी हो सकता है और मानव के लिये विश्राम दाता न बनकर प्राणघातक भी सिद्ध हो सकता है। फिर तो आज का विज्ञान क्या बता सकता है कि वह किधर जा रहा है-आकाश की ओर या मृत्यु की ओर ? मानव जीवन के दो पक्ष हैं-बुद्धि तथा पशुता। विज्ञान तरह-तरह के प्रयोगों के आधार पर मानवीय बुद्धि को विकसित कर रहा है जिससे मानव जीवन एकांगी होता जा रहा है। मानव में छिपी हुई पशुता आज के विज्ञान के कारण बलवती होती जा रही है। जिस तरह एक पशु दूसरे पशु के खा जाना चाहता है उसी तरह आज का मानव अपना विकास और दूसरे का बिनाश चाह रहा है जिसके लिए वह युद्ध के नए-नए उपकरणों के निर्माण एवं संकल्प में लगा है। उसकी पशुता बढ़ती जा रही है और मानवता घटती जा रही है। मनुष्य को पशु से मानव यदि कोई बना सकता है, तो वह धर्म ही है। धर्म में कोई प्रयोग या परीक्षण नहीं होता। इसका सम्बन्ध जीवन के आन्तरिक पक्ष से है। आन्तरिक पक्ष ही विकसित होकर जीवन को समग्रता प्रदान करता है। विज्ञान की उपलब्धियां मानव जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध होती हैं किन्तु उनके दुरुपयोग भी उनके साथ होते हैं। जब तक मनुष्य में धर्म की उदारता नहीं आती है, तब तक वह अपने को विज्ञान के दुरुपयोग से नहीं बचा सकता है। अतः यद्यपि विज्ञान और धर्म के अलग-अलग क्षेत्र हैं, पर दोनों एक दूसरे के सहयोगी हो सकते हैं, पूरक हो सकते हैं । और आज का मानव सिर्फ विज्ञान को ही न अपनाए बल्कि धर्म का भी अनुगमन करे तो उसके लिए श्रेयष्कर है।
समाजवाद और धर्म
पाश्चात्य विचारक रोशन ने कहा है-'समाजवाद उन प्रवृत्तियों का समर्थक है नो सार्वजनिक कल्याण पर जोर देती हैं।"४ यह सिद्धान्त समाज में एक स्तर तथा समानता लाने का प्रयास करता है। किन्तु समाजवाद के
3. God has been edged out from every human sphere of life and he has become obsolete.
-सामान्य धर्म दर्शन-पृ० ४६ । ४. समाजदर्शन की भूमिका-डॉ. जगदीश सहाय श्रीवास्तव, पृ० २७८ ।
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