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पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
राजनीति से उत्पन्न दल-बदल की व्याधि, सम्प्रदाय एवं जाति तथा पैसे की थैली एवं बन्दूकों की नोंक पर वोट प्राप्ति के खिलाफ जबतक जेहाद नहीं बोला जायगा, नैतिक मूल्यों के उन्नयन की बात मृग मरीचिका ही रहेगी। इसी प्रकार आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूढ़ियों पर कठोर से कठोर प्रहार करने पड़ेंगे। नैतिक उत्थान के आन्दोलन एवं आर्थिक क्षेत्र में, मिलावट, जमाखोरी, चोर-बाजारी साथ-साथ नहीं चल सकते, दहेज, शराब, अस्पृश्यता एवं साम्प्रदायिक विद्वेष के साथ धर्म की बातें नहीं हो सकती ।
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नैतिक उन्नयन के लिये कोई शार्ट कट नहीं है । इसके लिये समाज का समग्र-परिवर्तन परमावश्यक है । समाज परिवर्तन को दर किनार रखकर हम नैतिक अभ्युत्थान की चर्चा कर स्वयं अपने को धोखा देंगे । मानवीय मूल्य और समाज में अन्तः सम्बन्ध को हम जितनी दूर तक अपने विचार एवं आचार में स्वीकार कर सकेंगे, उसी मात्रा में मानवीय मूल्य की प्रतिष्ठा होगी ।
अष्टादश दोष विमुक्त धर्म
आधुनिक युग में सच्चा धर्म वह है जिसमें कुन्दकुन्दोक्त सद्गुरु के अठारह दोषों के समान निम्न अठारह दोष न हों :
१. क्षमाशील ईश्वर की मान्यता
२. जातिपांति, उच्च-नीच की मान्यता
३. नर-नारी विषमता
४. पलायनवादी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन
५. संसार की दुखमयता की मान्यता
६. पूर्ण ज्ञानित्व की मान्यता
७. पशु बलि की स्वीकृति
८. शास्त्र / आगम की प्रकांड प्रामाणिकता
९. अवनतिशील संसार की मान्यता
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१०. वाह्यलिंग की मान्यता
११. परंपरामोह का प्रश्रय १२. अनर्थक कष्टों की पूज्यता
१३. दिग्विजयादि की पुण्यात्मकता
१४. विषमताओं का प्रश्रय
१५. क्रियाकांड की मुख्यता १६. सद्गुणों की भी पापमयता १७. काल्पनिक स्रष्टि रचना १८. चमत्कारिकता
- 'संगम'
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