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२]
(ii) क्षेत्र
(iii) काल / स्थिति
(iv) भाव / परिणमन
यह आभूषण वक्स में रखा है ।
यह आभूषण आलमारी में नहीं रखा है ।
यह आभूषण आज बना है ।
यह आभूषण कल नहीं बना था ।
*
यह आभूषण गोल है ।
यह आभूषण आयताकार नहीं है ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विभिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर एक ही वस्तु के विषय में सकारात्मक और नकारात्मक निरूपण किये जा सकते हैं। हाँ, एक ही दृष्टिकोण से ऐसा करना असंगत होगा। यह सिद्धान्त अवास्तविक वस्तु पर लागू नहीं होता । जैनधर्म के अनुसार, किसी भी वस्तु के विषय में निरपेक्ष निरूपण संभव नहीं है । वास्तविकता इसे स्वीकार नहीं करती । यह उत्पाद, व्यय, धौव्यात्मक है । इसलिए जैनदर्शन अनेकांतवादी माना जाता है -विविधता में एकरूपता । इसी धारणा से बहुवादी विश्व का सामान्य सिद्धान्त विकसित हुआ है ।
(ब) खुशवंत सिंह के भारत के विषय में विचार *
डा० के०जैन,
भिंड, म० प्र०
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जैन धर्म : भारतीयों की दृष्टि में ३५
भारत में जैनों और बौद्धों की संख्या अधिक नहीं है । जो है भी, उन्हें हिन्दू ही माना जाता है। इनका केवल ऐतिहासिक महत्त्व है क्योंकि ये ब्राह्मणवादी हिन्दुओ के विरोध में घटित आन्दोलनों का प्रतिनिधित्व करते हैं । इन्होंने उत्तरवर्ती हिन्दुओं को प्रभावित किया है ।
जैनधर्म
जैन शब्द 'जिन' धातु ( जीतना ) से व्युत्पन्न हुआ है, अतः जैन वह है जिसने स्वयं ( के दोषों) पर विजय पाई हो । जैनों का विश्वास है कि उनके धर्म का विकास चौबीस तीर्थंकरों ( नदी का घाट पार करने वाले ) ने किया है । इनमें ऋषभनाथ, अजितनाथ तथा अरिष्टनेमि ने इनके सिद्धान्तों को व्यवस्थित किया है । इनके अधिकांश तीर्थंकर चरित्र पौराणिक हैं । लेकिन इनके तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ ( ८७२ - ७७२ ई० पू० ) और चौबीसवें तीर्थंकर महावीर (५९९-५२७ ई० पू० ) के विषय में विश्वसनीय ऐतिहासिक साक्ष्य पाये जाते हैं । यह विश्वास करने के कारण हैं कि जैनधर्म का प्रारंभिक विकास ब्राह्मणवादी हिन्दूधर्म के विरुद्ध प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ । जैनों ने अन्य धर्मों से भी प्रेरणा ग्रहण की। इनमें पारसीधर्म प्रमुख है जो उसी समय ईरान में विकसित हो रहा था । जैन पुराणों का आवर्ती लक्षण यह है कि इन सभी में पीढ़ी-दर-पीढी भलाई और बुराई के बीच लगातार युद्ध दिखाया गया है। कायन और ऐबल (Cain and Abil) के बीच भ्रातृघाती सामन्तप्रथा का द्वन्द्व दिखाया गया है। प्रकाश और अंधकार के बलों के बीच युद्ध बताया गया है । जरथुस्त के उपदेशों का केन्द्र बिन्दु भी अहुरमज्दा और अंगु मेन्यु के बीच युद्ध ही रहा है । पारसी पिशाच को कंधों पर बने हुए सांप के रूप में निरूपित करते हैं । यही बात जैन प्रतिमाओं ( पाश्वनाथ ) में भी पाई जाती है । यद्यपि जैन विद्वान् वैदिक युग से ही जैनधर्म की उत्पत्ति मानते हैं, पर अधिकांश सामान्यजन महावीर को ही इसका संस्थापक
मानते हैं
संपादक राहुल सिंह, आइ० बी० एच० पब्लिशिंग कंपनी, बम्बई, १९८२ पेज ५२-५७ ।
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