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जैन धर्म : भारतीयों की दृष्टि में ३३
कर्म बन्ध से मुक्त होने पर मनुष्य मोक्ष पाता है । जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। वह वीतरागी होकर अनन्त चतुष्टय से परिपूर्ण रहता है । मोक्ष प्राप्त करनेवाले शुद्ध जीव को सिद्ध कहते हैं । इसके विपर्यास में, अन्य सभी जीव संसारी और सशरीरी होते हैं। वे कर्म-सहचरित होते हैं। इनका वर्गीकरण ज्ञानेन्द्रियों के आधार पर किया जाता है।
निम्नतम स्तर के जीवों में केवल एक ज्ञानेन्द्रिय होती है । ये जीव वृक्ष, पौधे आदि वनस्पतियों के रूप में होते हैं। इनमें स्पर्शन इन्द्रिय होती है। ये सूक्ष्म कोटि के भी होते हैं और वनस्पतियों से कुछ उच्चतर श्रेणी के होते है। ये पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायु में होते हैं। इन सूक्ष्म जीवों की मान्यता के इस सिद्धान्त की प्रायः सर्वात्मवाद के रूप में मिथ्या व्याख्या की जाती है । इसके अनुसार, पृथ्वी, जल, तेज, वायु स्वयं सजीव होते हैं । इस मिथ्या व्याख्या के लिये कोई वास्तविक आधार नहीं है । कृमि कुल वनस्पतियों से उच्चतर कोटि का होता है । इनके स्पर्श और रसनये दो इन्द्रियाँ होती हैं। चींटी चौथी श्रेणी को निरूपित करती है। इसमें स्पर्शन, रसन और घ्राण-तीन इन्द्रियां होती है । इसी श्रेणी की मधुमक्खी में चार इन्द्रियाँ होती हैं। उच्चतर जीवों में पाँच इन्द्रियाँ होती है । जीवों को सर्वोच्च श्रेणी पर मनुष्य आता है जिसमें पांच इन्द्रियों के अतिरिक्त मस्तिष्क या मन भी होता है । यह ध्यान में रखना चाहिये कि जीवों की इन्द्रियों या शरीर उसके जीव-गुण नहीं हैं। जीवगुण तो केवल चेतना है । निम्न श्रेणी के जीवों में यह गुण सुषुप्त रहता है । उच्चतर श्रेणियों के जीवों में विकसित होते हुए यह शुद्धात्माओं में पूर्ण अभिव्यक्ति पाता है।
यह विश्व जीव और अजीवों का समुदाय है। अजीव अक्रिय एवं अचेतन होता है । मूल अजीव भी अनादि और अनन्त है। यह पुद्गल, धर्म (गति माध्यम), अधर्म (स्थिति माध्यम), आकाश और काल के भेद से पांच प्रकार का है। इनमें पुद्गल भौतिक है, काल अप्रदेशी है, अन्य सभी अमूर्त है ।।
पुद्गल या पदार्थों में रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द आदि इन्द्रिय गोचर गुण पाये जाते है । यह ज्ञाता जीव से स्वतन्त्ररूप में पाया जाता है। यह विश्व का भौतिक आधार है। यह परमाणुओं से बना होता है । परमाणु निरवयवी, आदि-मध्यान्त रहित, अनादि, अनन्त एवं चरम होता है । यह पुद्गल का अल्पतम आधार है, अनाकार है। दो या अधिक परमाणुओं के संयोग को स्कन्ध कहते है । विश्व को महास्कन्ध कहते हैं। प्राथमिक परमाणुओं में कोई भेद नहीं होता, पर अनेक विविध संयोगों से भिन्न-भिन्न पदार्थ बनते हैं। इस आधार पर जैन तत्व विद्या के परमाणु न्याय-वैशेषिकों से भिन्न है । ये उतने परमाणु मानते हैं जितने मूल तत्व होते है-पृथ्वो, जल, तेज, वायु और आकाश । परमाणुओं के संयोग, वियोग एवं क्रियायें अमूर्त आकाश, धर्म और अधर्म द्रव्यों के उदासीन कारण से होते हैं। आकाश अनन्त है एवं वास्तविक है । यह स्वयं को तथा अन्य द्रव्यों को अवगाहित करता है ।
धर्म और अधर्म द्रव्य जैन दर्शन की विशिष्ट मान्यता है । गति और स्थिति जीव और पुद्गलों में ही पाई जाती है। ये दोनों भी, क्षमता होने पर भी, इन द्रव्यों के कारण ही विश्व में व्याप्त रहते हैं। ये द्रव्य उदासीन कारण होते हए भी गति एवं स्थिति के लिये अनिवार्य है। धर्म के लिये जल में मछली की गति का और अधर्म के लिये पक्षी की स्थिति का उदाहरण दिया जाता है। दोनों ही द्रव्य विश्व के व्यवस्थित संघटन के लिये आवश्यक माने गये हैं।
काल द्रव्य भी एक वास्तविकता है। यह अप्रदेशी हैं। यह विकास और प्रत्यावर्तन, उत्पाद और लिए अनिवार्य है । ये प्रक्रियायें विश्व-जीवन की मूल हैं। काल के बिना इन प्रक्रियाओं के विषय में सोचा भी नहीं जा सकता। जीव और उपरोक्त पांच अजीव द्रव्य मिलकर जैन तत्व विद्या के छह द्रव्य होते हैं। जैन तत्वों और पदार्थों के वर्गीकरण की समीक्षा आवश्यक है। इस वर्गीकरण में सात तत्व, नौ पदार्थ, छह द्रव्य और दृष्टिकोण तथा उद्देश्य पर आधारित दो अन्य तत्वों ( ए० चक्रवर्ती ) का समाहरण है । इस जटिल विषय को सारणी के माध्यम से समझने में सरलता होगी।
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