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आयोजन की प्रायोजना के समय ही यह धारणा रही है कि पंडित जी आखिल भारतीय व्यक्तित्व होते हुए मूलत: विंध्य एवं मध्य प्रदेशीय हैं। अत: इस आयोजन का आर्थिक पक्ष इसी क्षेत्र से समृद्ध किया जावे । सामान्यतः, ऐसे साहित्यक आयोजनों के लिये इस क्षेत्र का योगदान नगण्य ही रहा है। जहाँ विद्वत् अभिनंदन ग्रंथ जैसे ग्रंथ में मध्य प्रदेश का आर्थिक योगदान शून्यवत् ही रहा है, वहीं पं० सुमेरुचंद्र दिवाकर ग्रंथ में यह १६% एवं पं० कैलाशचंद्र जी शास्त्री के ग्रंथ हेतु यह २०% रहा । फिर भी, हमारी समिति को इस बात की प्रसन्नता है कि इस आयोजन हेतु हमें ८०% से अधिक योगदान इसी क्षेत्र से मिला है। भारत के अन्य योगदान मिला है। हमारे आयोजन के अनुमानित सत्तर हजार रु० के व्यय के मुख्य मद ग्रंथ प्रकाशन ( लगभग ५०,००० == 00 ) और यात्रा व्यय (प्रायः १०,०००=००) रहे हैं। आयोजन संबंधी जटिल स्थितियों को देखते हुए और कार्य को गति देने के लिये बैठकों एवं पत्राचार के बदले व्यक्तिगत संपकों को ही वरीयता दी गई। यह आलोचना का विषय हो सकता है, पर समिति यह मानती है कि यही उसके लिये कार्यसाधक उपाय था। इसी कारण यह संभव हो सका कि हमारा जटिल आयोजन अन्य सरलतर आयोजनों के समकक्ष समय में सम्पन्न हो पा रहा है जैसा सारणी १ से प्रकट है । इस आयोजन कार्य हेतु पंडित जी से संबंधित अनेक संस्थाओं विद्वत् परिषद, वर्णी शोध संस्थान, स्याद्वाद महाविद्यालय काशी, परवार सभा, जबलपुर, जैन शिक्षा-संस्था, कटनी, अनेक ट्रस्टों (बी० एस०
जबलपुर, जैन ट्रस्ट, रीवा ), क्षेत्रों-कुंडलपुर, पपौरा, खजुराहों, एवं शिष्यों से सहयोग मिला है। दमोह नगर से सर्वाधिक सहयोग मिला। कटनी भी पीछे नहीं रहा। सेठ धर्मचंद सरावगी जैसे सज्जनों ने परोक्ष जानकारी के आधार पर सहयोग दिया। वस्तुतः यह कुण्डलपुर के बड़े बाबा एवं भ० संभवनाथ की प्रतिमा के नवोत्तरण का प्रभाव ही है कि 'पदे पदे विच्छिन्नशंकु' प्रतीत होने वाले इस आयोजन को पूर्णता मिल सकी। समिति का आय-व्ययक पृथक से प्रसारित किया जा रहा है।
___ इस आयोजन का द्वितीय चरण, ग्रंथ समर्पण समारोह, कुंडलपुर क्षेत्र पर आचार्य श्री विद्यासागर जी के सान्निध्य में जैन विद्या गोष्ठी के माध्यम से संपन्न करने का निश्चय था। परंतु अनेक विवशताओं ने स्थानपरिवर्तन के लिये बाध्य किया। हम सतना की महावीर दि० जैन पारमार्थिक संस्था के आभारी हैं कि उन्होंने इस आयोजन को अपने यहां संपन्न कराने का पूर्ण उत्तरदायित्व लिया।
इस आयोजन हेतु हमारे समन्वयक डा० जैन ने ८०,००० किमी० से भी अधिक यात्रायें की, ३०० से अधिक व्यक्तियों से सम्पर्क किया और ३,५०० से भी अधिक पत्र लिखे । उनका श्रम और त्याग प्रशंसनीय हैं। हमें लगता है कि उनकी तीब्र निष्ठा के बिना यह कार्य संभव नहीं हो पाता। उनके कार्य साधक वचनों या व्यवहार से अनेक जन अन्यथाभावी दिखे हैं। पर हम जानते हैं कि उनका उद्देश्य ऐसा कभी नहीं रहा । हम इस स्थिति के लिये क्षमाप्रार्थी हैं और समिति की ओर से डा० जैन को कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
अंत में हम सभी दातारों, लेखकों, विद्वत् समिति, स्वागत समिति एवं प्रबंध समिति, समारोह आयोजन समिति के सदस्यों, विभिन्न संस्थाओं, ट्रस्टों एवं क्षेत्र-समितियों को धन्यवाद देना चाहते हैं जिनके सहयोग के बिना समिति यह गुरुतर कार्य कैसे कर सकती थी? ग्रंथ मुद्रण के निर्णय के क्रांतिक क्षणों के हमारे सहयोगी श्री पी० के० जैन और श्रीमती क्षमा जैन के प्रति समिति की कृतज्ञता मनोहारी ही होगी। इस अवसर पर अनेक लिपिकीय सहायकों को भी कैसे भुलाया जा सकता है ?
मुझे विश्वास है कि यह साधुवाद ग्रंथ विद्वत् वर्ग, अध्येता, अनुसंघित्सु एवं समाज के प्रगतिशील विचारकों के लिये सारवान् सिद्ध होगा। हमारे समग्र प्रयास में अपूर्णता एवं त्रुटियाँ स्वाभाविक हैं। उसके लिये समिति की ओर से हम क्षमाप्रार्थी हैं । महावीर जयन्ती, १९९०
-प्रबंध समिति
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