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. २. पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद.ग्रन्थ
[ खण्ड उदाहरण के लिए, कोई सच्ची किन्तु कड़वो बात किसो से कह दी गई और उससे उसके हृदय को चोट पहुंची, तो उक्त सच्ची बात अपनी यथार्थता की अपेक्षा से सच्ची ( हिसाकारक ) होते हुए भी कहने की अपेक्षा से झूठी ( हिसाकारक ) बन गई। शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'पंकज' का सामान्य लोकरूढ़ अर्थ है कमल । किन्तु कमल केवल पंक से ही तो नहीं उत्पन्न होता, अपितु उसके लिए पंचभूत के सम्मिलित प्रभाव की अपेक्षा होती है। इस प्रकार कमल को 'पंकज' कहना लोकरूढ़ि की अपेक्षा से सत्य होते हुए भी पांचभौतिक प्रभाव की अपेक्षा से असत्य है। इसलिए जैनष्टि किसी भी वस्तु को केवल सत्य न मानकर उसे सत्यासत्य या उभयात्मक या अनेकान्तात्मक मानती है। स्पष्ट है कि हिंसा की अपेक्षा से सत्य भी अग्राह्य है और अहिंसा की अपेक्षा से असत्य भी ग्राह्य है । और यही तब व्यास की पूर्वोद्धृत उक्ति चरितार्थ होतो है कि 'यल्लोकहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति नःश्रुतम् ।' अर्थात्, अधिकाधिक लोकहित ही, चाहे वह जिस किसी प्रकार से हो, सत्य है।
महाभारत-युद्ध में युधिष्ठिर के द्वारा मंग्यन्तर से कही गई उक्ति, 'अश्वत्यामा हतः कुञ्जरो वा नरो वा' असत्यगन्धी होते हुए भी लोकहित की दृष्टि से असत्य नहीं थी। युधिष्ठिर के लिये आत्महित को अपेक्षा से उनकी युक्ति यदि असत्य ( हिंसक ) थी, तो व्यापक लोकहित को अपेक्षा से सत्य ( अहिंसक ) थी। अपने पुत्र अश्वत्थामा की मृत्युसूचना से, चाहे वह गलत ही थी, द्रोणाचार्य शोकाहत हुए और उनके द्वारा की जाने वाली भीषण विरोधी प्राणिहिंसा में शोक-शैथिल्यवश सहज ही न्यूनता आ गई, जो लोकहित या युद्धशान्ति के प्रयास के रूप में ही मूल्यांकित हुई ।
प्राचीन युग में सत्य और अहिंसा के बहुत बड़े प्रवक्ता भगवान महावीर हुए और अर्वाचीन युग में महात्मा गान्धी ने भगवान महावीर के सत्य और अहिंसा की प्रासंगिकता को लोकतांत्रिक दृष्टि से अधिक-से-अधिक विकासात्मक व्याख्या की। दोनों ही महात्मा इस बिन्दु पर एकमत दिखाई पड़ते हैं कि अहितकारी सत्य भी असत्य और हितकारी असत्य भी सत्य है। उदाहरण के लिए, अगर किसी रोगी की हालत बिगड़ने लगती है, तो डॉक्टर हितभावना से उसको तसल्ली के लिए, उसके हृदय को मृत्यु के आतंक से बचाने के लिए उसके ठोक हो जाने का झूठा अश्वासन देता है । यह हितकारी होने के कारण असत्य होते हुए भी सत्य ही है। ठीक इसके विपरीत रोग की भीषणता की सत्य
गी को आतंकित करने वाला व्यक्ति सत्य बोलते हुए भी अहितकारी होने के कारण असत्य या हिंसक वाणी बोलता है । इसी सन्दर्भ में 'लाटोसंहिता' में जिन-वचन का उल्लेख प्राप्त होता है :
सत्यमपि असत्यतां याति क्वचिद् हिसानुबन्धतः । .
असत्यं सत्यतां याति क्वचिद् जीवस्य रक्षणात् ।। अर्थात्, जिस बात से जीवहिंसा सम्भव हो, वह सत्य होकर भी असत्य हो जाता है। इसी प्रकार, क्वचित् जीवों की रक्षा होने से असत्य वचन भी सत्य हो जाता है । 'अनगारधर्मामृत' में इसी सिद्धान्त का समर्थन किया है :
सत्यं प्रियं हितं चाह : सूनृतं सुनृतवता।
तत्सत्यमपि नो सत्यमप्रियं चाहितं च यत् ॥ जो वचन प्रशस्त, कल्याणकरक, आह्लादक तथा उपकारी हो, ऐसे वचन को सत्यव्रत पुरुषों ने सत्य कहा है, किन्तु वह वाणी सत्य होकर भी सत्य नहीं है, जो प्रिय और अहितकर, अर्थात् हिंसक है।
_ जैनधर्म की अहिंसा की यह व्याख्या अतिशय व्यावहारिक होने के कारण वर्तमान सन्दर्भ में भी अपना ततोऽधिक मूल्य रखती है।
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