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१२ पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
वर्तमान में श्रमण संस्कृति के दो महत्वपूर्ण घटक माने जाते हैं-१. जैन और २. बौद्ध । इन दोनों के उपास्य तीर्थकर अथवा अर्हत् क्षात्रकुलोत्पन्न थे। पूर्वी भारत में क्षत्रियों के नेतृत्व वाली संस्कृति अहिंसा तथा विचार सहिष्णुता पर आधारित रही है। जैन परम्परा वर्तमान कालचक्र में तीर्थंकर ऋषभ देव से इस परम्परा का प्रारम्भ मानती है । उनके पश्चात् २३ तीर्थकर और हुए । २१ वें नमिनाथ, २२ वें अरिष्ट नेमि और २३ वें पार्श्वनाथ तथा २४ वें वर्धमान महावीर थे। तात्पर्य यह है कि पार्श्वनाथ तथा वर्धमान तो उस महत्त्वपूर्ण संस्कृति को अन्तिम कड़ी थे, जो तोथंकर ऋषम देव ने प्रारम्भ की थी। ज्ञात इतिहास ने इन दोनों तीर्थंकरों को ऐतिहासिक माना है। उसके पूर्वकाल तक हमारे इतिहासविद् विद्वानों की पहुंच नहीं हो सकी है। किन्तु केवल इसी कारण उनके अस्तित्व के सम्बन्ध में शंका नहीं की जा सकती। कारण यह है कि हमारे देश के प्राचीन साहित्य में प्रचुर मात्रा में सामग्री मिलती है, जिसपर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है :
१. तीर्थंकर ऋषभदेव अन्तिम कुलकर या मनु "नामि" के पुत्र थे, जिनका उल्लेख वेदों तथा श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्ध में अत्यन्त श्रद्धा के साथ किया गया है । उनको परम योगी, परम अवधूत मानकर उनको प्रशंसा की गयी है।
२. तीर्थंकर ऋषभदेव, अजितनाथ एवं २२ वें तीर्थंकर अरिष्ट नेमि का उल्लेख यजुर्वेद में भी मिलता है। ३. तीर्थंकर अरिष्ट नेमि यादवों की एक शाखा में जन्मे तथा पशु हिंसा के दृश्य से व्याकुल होकर विरक्त हुए
तथा तपस्या करके गिरनार पर्वत ( उर्जयन्तगिरी ) पर निर्वाण को प्राप्त हुए। सौराष्ट्र ( जहाँ गिरनार पर्वत है ) में गौ तथा पशुशाला ( पिंजरापोल ) का अस्तित्व अरिष्ट नेमि (नेमिनाथ ) की विरक्ति के कारण को ज्योतित करती है।" ४. तीर्थंकर अरिष्ट नेमि, वासुदेव कृष्ण के चचेरे भाई थे । वैदिक परम्परा में ऋषि आंगिरस ने कृष्ण को आत्म
यज्ञ की शिक्षा दी । एक मत यह है कि आंगिरस, तीर्थंकर अरिष्ट नेमि का ही अपर नाम था। उपदेश की • मूल भावना से अनुमान होता हैं कि वह एक जैन मुनि का दिया हुआ उपदेश हो । ५. भारतीय साहित्य के प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद ( १०.१३.६.२. ) में मुनि की एक विशेष शाखा वातरशना
तथा उनकी वृत्तियों का जिक्र है । यह विशेषण, अनासक्ति मौन आदि आध्यात्मिक वृत्ति के धनी तपस्वियों का है। वेदोत्तर कालीन वैदिक परम्परा में भी ये मुनि पूर्ववत् सम्मानित थे। तैत्तिरीय आरण्यक ( १.२.६.७.), तथा पद्मपुराण ( ६. २१२) के अनुसार तप का नाम ही श्रेय है। यह ज्ञातव्य है कि वातरशना, जैन परम्परा के लिये परिचित नाम है, जैसा जिनसहस्त्र नाम में उल्लेख आता है। ६. अनुमान है कि तैत्तिरीय आरण्यक काल में, व्यवहार में ऋषि तथा मुनि शब्द पर्यायवाची होते जा रहे थे।
कहीं वातरशना श्रमण मुनि के लिए ऋषि तथा वैदिक गृहस्थाश्रमो ऋषि के लिए मुनि शब्द का प्रयोग
मिलता है। यह समन्वय बुद्धि का परिणाम ज्ञात होता है । वैदिक परम्परा में भी प्रारिम्भक आश्रम ४. भारतीय दर्शन, डॉ० राधाकृष्णन्, भाग-१, पृ० २६४ । ५. प्राग-ऐतिहासिक जैन परम्परा, डॉ० धर्मचन्द जैन, पृ० ५ । ६. भारतीय संस्कृति एवं अहिंसा, धर्मानन्द कोसाम्बी, पृ० ६८ । ७. प्राग्-ऐतिहासिक जैन परम्परा, डॉ. धर्मचन्द जैन, पृ. ७, ९ ।
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