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१० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड मूर्ति पूजा के लिये नहीं, प्रेरणा के लिये होती है। अतः मन्दिरों में, स्थानकों में इस दृष्टिकोण से
मूर्तियां रखना सामयिक मांग की पूर्ति ही होगी। (र) साध्वी के अपमान या अवंदनीयता का सिद्धान्त जैन धर्म से मेल नहीं खाता। नरनारी समभाव के आधार
पर संघ में अनुशासन रखना चाहिये । (ल) जन-जन में प्रचार को दृष्टि से पैदल विहार का माध्यम सर्वश्रेष्ठ है, पर आज के गतिशील युग में, विशिष्ट
कारण और अवसरों ( उपसर्ग की आशंका, धर्म प्रचार आदि) पर शीघ्रगामी वाहनों के उपयोग
को स्वीकृति मिलनी चाहिये । (व) मुक्ति और सिद्धशिला माने या न मानें, पर मोक्ष पुरुषार्थ को मान्यता अवश्य रहनी चाहिये । महावीर का
जीवन इसीलिये महत्वपूर्ण है। दुःख की परिस्थिति में भी सुख का स्त्रोत भीतर से बहाना और सुखानुभूति
ही वह मोक्ष पुरुषार्थ है जिसका उपदेश महावीर ने दिया है। (श) जंन धर्म को अधिक प्राचीन सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये । वर्तमान तीर्थ तो महावीर ने
प्रचलित किया। उसमें पार्श्व धर्म का भी समन्वय किया गया और उन्हें भी तीर्थकर मान लिया गया।
फलतः अब पार्श्व के धर्म का कोई पृथक् अस्तित्व नहीं रहा । वर्तमान जैन धर्म महावीर की ही देन है । (ष) जन सम्प्रदाय जातिभेद नहीं मानता। जिनसेनाचार्य के समय से कुछ दिगम्बर ग्रन्थों में इसका समाहरण
हुआ है। दक्षिण में मध्ययुग में अनेक जैनेतर संस्कार अपनाने पड़े। अब इनको आवश्यकता नहीं
है। इन्हें अब प्रक्षिप्त मानना चाहिये । (स) जैन तीर्थकर को ईश्वर के समान गुणवाला मानकर जैनधर्म का मूल हो विकृत कर दिया गया है । उनके
कल्याणकों की अलौकिकता भी प्रभावकता का पोषणमात्र है। ऐतिहासिक दृष्टि से इनका कहीं उल्लेख नहीं मिलता। निरीश्वरवादी एवं प्रकृतिवादी जैनधर्म में ईश्वरवाद का परोक्ष राज्य वैज्ञानिक युग में उसके
गौरव को ही कम करता है । ऐसे विवरणों को उपेक्षणीय मान लेना चाहिये । (ह) जैनों का मूल सिद्धान्त "युक्तिमत् वचनं यस्य, तम्य कार्यः परिग्रहः" है। इस आधार पर जैन निष्पक्ष
विचारक होता है। उसमें अन्धश्रद्धा का होना एक कलंक है। इन धारणाओं के समाहरण एवं क्रियान्वयन से जैनों के मानव-कल्याण का क्षेत्र व्यापक होगा और एक नई उदार दृष्टि प्राप्त होगी। असत्य जानते हए भो पुरानी बातों से चिपके रहना कमो स्वपर-कल्याणक उपरोक्त नई दृष्टि अपनाने से जन्मना जैनधर्म के प्रति अनुराग और बढ़ेगा। उसका पूराना वैभव भी प्रकाशित होता रहेगा और नये युग में वह सम्प्रदाय विहीन रूप धारण कर भारतीय संस्कृति की उज्ज्वलता को विश्व में प्रसारित करेगा।
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