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जैनधर्म : प्राचीनता का गौरव और नवीनता की आशा ७
का उद्घोषक नहीं हुआ है । आज के युग को बढ़ती शाकाहार प्रवृत्ति और मांसाहार-निवृत्ति की रुचि महावीर के उपदेशों की लोकप्रियता एवं वैज्ञानिकता की प्रतीक है। बुद्ध की अहिंसा महावीर से काफो पोंछे थी। लोग महादेव को पशुपतिनाथ कहते हैं। पर सच्चे पशुपति तो महावीर ही है, जिनकी कृपा से हजारों वर्षों से करोड़ों पशुओं को अभय मिला हुआ है । अहिंसा का जीवनव्यापी उपदेश महावीर के असाधारण साहस का परिणाम मानना चाहिये ।
अहिंसा के समान अनेकान्त का दार्शनिक दृष्टिकोण भी उनकी एक असाधारण देन है। इससे द्वन्द्वात्मकता दूर कर बौद्धिक समन्वय दृष्टि प्राप्त हुई। वस्तुतः व्यवहार में तो अनेकान्त आदिम काल से ही है, पर व्यवहार की समझ का उपयोग दार्शनिक क्षेत्र में प्रचलित नहीं था । महावीर ने यह कमो दूर कर संसार का अनन्त उपकार किया है।
महावीर ने श्रम, सम और स्वावलम्बन के तीन सकारों का उपदेश देकर बताया कि भक्ति, दोषस्वीकृति या क्रियाकाण्ड से दुख दूर नहीं होता। अपने किये हुए कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। महावीर ने भी अपने त्रिपृष्ठनारायण के भव में किये गये अन्याय का फल अनेक भवों तक भोगा। कर्मफल की यह अनिवार्यता मनुष्य को कर्मपरायणता के लिये प्रेरित करती है। भक्ति आदि से कर्मपरायणता शिथिल हो, यह उन्हें बिलकुल पसन्द नहीं था। इसीलिये वे निरीश्वरवादी बने, प्रकृतिवादी बने । जड़ प्रकृति भक्ति आदि से कैसे प्रसन्न हो सकती है ? उनका कर्मबाद मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन को समुन्नत करने के लिये आशकिरण प्रमाणित हुआ है। यह भी भारतीय संस्कृति को उनकी असाधारण देन है ।
महावीर के युग में आलंकारिक भाषा में कही बातों को लोग अभिधेय अर्थ में मानने थे। हनुमान को बन्दर, रावण आदि को पहाड़ के समान मान्यताओं से जीवन की संगति नहीं बैठती थी। महावीर ने इस असगति को दूर करने का प्रयत्न किया। हनुमान को वानरवंशी मनुष्य बताया तथा रावणादि को राक्षसवंशी निरूपित किया। उनके शरीरादि अवश्य आज को तुलना में विशाल थे। महावीर की तुलना में भी पर्याप्त विशाल थे। इस पौराणिक असंगति को उन्होंने काल की अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी भेद को मान्यता से तर्कसंगत बनाया। उन्होंने कालचक्र की अनादिअनंतता प्रस्तुत कर आलंकारिक तत्वों को बोधगम्य बनाने में असाधारण योगदान किया।
महावीर मानव-मात्र की समता के प्रचारक थे। वे जातिभेद एवं ऊँचनीच का भेद नहीं मानते थे। इसीलिये हरिकेशी चांडाल और केशिश्रमण के उदाहरण जैन शास्त्रों में आते हैं। उनके अनुसार, मानव जाति एक है, जन्मना एक है, कर्मणा या देश-कालगत भेद व्यावहारिक हैं । उनके कार्यों में उत्परिवर्तन सदैव संभव है।
महिलाओं का गौरव बढाने में महावीर अग्रणी सिद्ध हुए। जब बुद्ध महिलाओं को साध्वी ही बनाने को तैयार न थे, तब महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना कर उनको पुरुषों के समकक्ष महत्व दिया। श्वेतांबर परम्परा तो उन्हें अर्हत् पद पर भी प्रतिष्ठित करती है। साध्वियों को वंदनीयता के सम्बन्ध में प्रचलित विचारधारा बुद्धधर्म से अनुप्राणित लगती है। यह महावीर के उपदेशों से मेल नहीं खाता। मेरा सुझाव है कि जैन साधु-संघ को इस भूल में सुधार कर लेना चाहिये ।
भारतीय दर्शनों में महावीर युग में ३६३ मतवाद प्रचलित थे। इनमें से अनेकों में स्थान पाने एवं अवस्था परिवर्तन के लिये आकाश एवं काल द्रव्यों की मान्यता रही है। इस आधार पर महावीर के ध्यान में आया कि चलना
और स्थिर होना भी पदार्थों के स्वभाव हैं। इन कार्यों के लिये भी पृथक् द्रव्य होने चाहिये । एतदर्य उन्होंने धर्म और अधर्म द्रव्य की मान्यता प्रस्तुत की। यह उनका अनूठा, गहन दार्शनिक चिन्तन था। यह न्यूटन के युग तक अपूर्व माना जाता रहा। वैज्ञानिक युग में इन्हें पहले जड़ता के सिद्धान्त से सहसम्बन्धित किया गया, फिर ईथर और गुरुत्वशक्ति
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