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११६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
किन्तु पंडित जी ने विनम्रतापूर्वक यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया, "धन्यकुमार जी मेरी सब आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। मुझे कुछ आवश्यकता नहीं है । मैं वर्तमान में सुखी और संतुष्ट हूँ ।" पंडित जी की इस निस्पृह वृत्ति ने उनके भक्तों की मोह लिया । साहू जी तो उनसे अत्यंत ही प्रभावित थे । एकवार उन्होंने गोपालदास वरैया शताब्दि समारोह में दिल्ली में कहा भी था : “पंडित जगन्मोहनलाल जी की धर्म-चर्चा तो हमारी समझ में आती है । अन्य विद्वानों को गूढ़ बातें हमारी समझ में नहीं आती ।"
वरैया जी के वर और नि:स्पृह वृत्ति का ही यह फल है कि उनके ज्ञान - प्रकाशन की प्रक्रिया अत्यंत प्रभावी है । वे अनेक ग्रन्थों के टीकाकार ( अध्यात्म अमृत कलश, श्रावक धर्म प्रदीप, आत्म प्रबोध ), अनेक पत्रों के संपादक एवं पत्रकार रहे हैं।
(ग) राष्ट्रीयता के बीज
महात्मा गांधी का राष्ट्रीय आंदोलन जब चालू होने वाला था (१९२१), वे काशी में भाषण देने आये थे । उनका भाषण सुनने पंडित जी भी गये थे । उन्होंने गांधी जी से पूछा था, "संस्कृत के विद्यार्थियों को तो परीक्षा छोड़ने का प्रश्न ही नहीं है ?"
गांधी जी ने कहा था, "अपने दूध को घर में बैठकर पियो, शराब की कलारी में नहीं । कहीं आपको भी शराब की लत न पड़ जावे । "
इस पर पंडित जी व अन्य विद्यार्थियों ने सरकारी परीक्षाओं का बहिष्कार कर दिया था ।
दूसरा प्रश्न उन्होंने खादी के सस्ते मंहगेपन के विषय में पूछा था। गांधी जी ने कहा था, "यदि बाजार में रोटियाँ या अन्न महंगा हो जावे और मांस सस्ता हो जावे, तो क्या आप मांस खाना चालू करोगे ?" इस लाजबाब तर्क ने पंडित जी को स्वदेशी वस्त्र एवं वस्तुओं के उपयोग का व्रत दिलाया । इसे वे आज भी पाल रहे हैं । यहीं से उनका राष्ट्रीय एवं देश सेवा का व्रत चालू हुआ ।
पंण्डित जी १९२५ में कटनी कांग्रेस कमेटी के सदस्य बने और उन्होंने राष्ट्र सेवा के अनेक कार्य किये । दमोह कांग्रेस कमेटी की ओर से वे कानपुर कांग्रेस अधिवेशन हेतु प्रतिनिधि के रूप में सक्रिय रूप से सम्मिलित हुए । मन् १९३० में 'जंगल सत्याग्रहियों' के जेल गये परिवारों के घर-घर जाकर पण्डित जी ने अन्न, वस्त्र की सहायता पहुँचाई । उन्होंने उन दिनों कांग्रेस-बुलेटिन भी निकाला । पारिवारिक एवं धार्मिक कारणों से वे कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष न बन सके, लेकिन उनका प्रभाव उससे कहीं अधिक था । उन्होंने अपने समय में गांधी जी की शिक्षा नीति के अनुसार जैन शिक्षा संस्था में राष्ट्रीय हिन्दी पाठ्यक्रम चलाया और चरखा कताई भी प्रारम्भ की। इससे हमारी संस्था का भी राष्ट्रीय चरित्र बना । आज भी पण्डित जी में राष्ट्रीयता कूट-कूट भरी हुई है ।
अपने जीवन के सन्ध्याकाल में भी वे मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ एवं सजग हैं । वे प्रतिदिन पाँच-सात घन्टे तक लगाकर सिद्धांत ग्रन्थों के स्वाध्याय, चिंतन-मनन, पठन-पाठन एवं अनुशीलन में व्यस्त रहते हैं ।
मेरे ऊपर उनका सदैव वरद हस्त रहा है । मेरे पिता जी के स्वर्गवास के समय मेरी उम्र केवल पांच वर्ष की थी । मेरे जीवन के उषा काल से ही मेरी शिक्षा-दीक्षा उनके मार्ग निर्देशन में हुई । जीवन के प्रत्येक सुख-दुःख, आपद-विषद, संघर्ष - उत्कर्ष में सदैव धूप छांव की तरह उनका साथ रहा । सदैव मेरे पिता तुल्य अभिभावक रहे । उनके उपकार से मेरा उऋण होना कठिन है । ऐसे तपःपूत विराट् महामानव के चरणों में शतशत प्रणाम ।
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