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पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
इस तरह इसका प्रचार २५ वर्ष से हो रहा है। इनकी पूजा-आराधना विधि जप मंत्र में गधे के रक्त, कुत्ते के रक्त, काक पत्र, स्मशान हड्डी, मुर्दे के वस्त्र आदि हिंसक घृणित पदार्थों के उपयोग का विधान है । देखिये, ये कैसे जिन शासन देव हैं या जिन शासन के देव कह कर आपको मिथ्यात्व की ओर ही ढकेला जा रहा है। अभी लघुविद्यानुवाद नामक एक ग्रन्थ भी प्रकाशित हुवा है । उसकी समालोचना भी जैन पत्रों में प्रकाशित की गई है। उसमें भी इसी प्रकार मिथ्या देवों की पूजा-अर्चा आराधना को उपादेय माना गया है ।
एक बड़ा प्रश्न है कि द्वादशांग का मूल लोप हो जाने एवं पंचम पूर्व का अंशमात्र ही शेष रहने पर धरसेनाचार्य ने अपने शिष्यों को वाचना दी और उनके शिष्य आचार्य भूतवली - पुष्पदन्त ने षड्खंडागय बनाए । अतः विद्यानुवाद किस आधार पर बना है, उसकी प्रमाणिकता कैसे स्वीकार की जाये ?
फिर जिन बातों का सम्बन्ध जिनागम से विरुद्ध वीतरागी जिन के सिवाय रागी द्वेषी कुदेवों की आराधना एवं हिंसकपूर्ण द्रव्यों से है, तो वह जिनागम कैसे हो सकता है ?
भट्टारक युग के प्रारम्भ में अनेक भट्टारक जिनागम के प्रचारक व प्रभावक रहे । यद्यपि उनका वेष जिनागम में कहीं भी उल्लखित नहीं तथा पीछे-पीछे भट्टारक गद्दियों पर जब जैन नहीं बैठे, तब ब्राह्मण लड़कों को दीक्षा देकर बैठाया गया। उन्होंने जिनागम में अपनी वैदिक मान्यता को समाविष्ट कर उसका विरुद्ध रूपान्तर कर दिया । जिनसेन नामक भट्टारक के शिष्य प्रशिष्य अपना नाम जिनसेन और आचार्य भी लिखते रहे। इसी प्रकार अन्य गद्दियों की भी नामावली पुराने नामों पर चलती रही। उससे विद्वानों को धोखा हुआ और उन्हें उक्त आचार्यों की कृतियाँ मानकर उसका प्रचार दि० जैन समाज में किया ।
स्पष्ट है कि वीतरागी के सिवाय अन्य देव पूज्य नहीं और अहिंसा-मूलक क्रियाओं के सिवाय हिंसापूर्ण क्रियाएँ जिनागम मान्य नहीं । इस तरह शासन देवों के नाम से कुदेव पूजा कभी ग्राह्य नहीं है ।
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