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श्रावक धर्मप्रदीप टीका एक समीक्षा ९५
प्रतिमाओं के निरूपण में टीकाकार ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है। अनेक लोग कहते हैं कि संसार में सुख है-विद्या, धन, कुटुम्ब आदि । फिर जैनधर्म में एकान्ततः संसार को दुःखमय क्यों कहा गया है ? इसके समाधान में कहा गया है कि सुख-दुःख की अनुभूति हमारी मानसिक कल्पना या ज्ञान से होती है । विभिन्न परिस्थितियों में आत्मा के गुणों में, परनिमित्त से, विकार या परिणति होती है। उसे सुख, दुःख, कर्मफल का भोक्ता मात्र ब्यवहार से कहा जाता है । निश्चयनय से तो वह ज्ञान मात्र ही है । इसलिये आत्मिक दृष्टि से सुख-दुःखमयता का विशेष अर्थ नहीं है । दूसरे, संसार के सभी सुख क्षणस्थायी हैं, अत: इन्हें आचार्यों ने सुखरूप न कहकर दुःखरूप ही माना है । स्वात्मोत्थ सुख ही स्थायी एवं वास्तविक सुख है। सैद्धान्तिक दृष्टि से यह कथन समीचीन होते हुए भी इसकी व्यावहारिकता विचारणीय है।
महिलाओं के लिये आचार
टीकाकार के अनुसार, महिलायें भी ग्यारह प्रतिमाओं का पालन कर सकती हैं। उनकी अवस्था के भेद से क्वचित् अन्तर पड़ सकता है। वे आयिका के रूप में एकादश प्रतिमाधारी हो सकती हैं। दिगम्बर आगमों के अनसार स्त्री को क्षायिक सम्यकत्व नहीं हो सकता, अतः वह निर्वाण प्राप्त तो नहीं कर सकती पर आर्यिका पद उसे संभवत: स्त्री पर्याय से मुक्ति दिलाने में समर्थ हो सकता है।
समान और थावक के अन्योन्य सम्बंध
जैन धर्म के व्यक्तिवाद-प्रमुख आत्मवादी होने से उसके आचारों में व्यक्तिहित के साथ समाजहित के तत्व पर्याप्त मात्रा में हैं। लेकिन समाज या समाज द्वारा स्थापित धार्मिक या अन्य संस्थायें व्यक्ति के विकास में प्रेरक बन सकती है, या नहीं, इस पर कोई चर्चा नहीं है। क्या समाज के भी कोई धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक या प्रभावक कर्तव्य हैं ? पाक्षिक या नैष्ठिक श्रावक गरुपूजा, ज्ञान-चारित्र-वृद्ध-सेवा-सम्मान, चातुर्विध दान करे, यह उचित ही है, पर क्या इन श्रावकों के समाहारी समाज या उनकी संस्थाओं का व्यक्तियों के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है ? यदि व्यक्ति समाज के उन्नयन में योगदान कर सकता है तो क्या समाज व्यक्ति के उन्नयन में अभ्यर्थनात्मक योगदान भी नहीं कर सकता? वस्तुत: व्यक्ति और समाज परस्परतः अन्योन्य संबंधित हैं। उन्हें विलगित नहीं किया जा सकता। अतः टीकाकार की इस ओर भी व्यापक दृष्टि से अपने कुष्ठ मन्तव्य प्रकरणानुसार देने थे। इससे टीका और भी यूगानुरूप एवं महत्वपूर्ण हो जाती। इन मन्तव्यों से अनेक सामाजिक एवं धार्मिक प्रश्नों के समाधान में मार्गदर्शन भी मिलता है।
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