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साधुवाद आयोजन का चक्रव्यूह टूटा
पंडित जी के साधुवाद आयोजन की योजना की पृष्ठभूमि १९८० में निर्मित हुई थी। अपने अनुभवों के आधार पर इसकी बात सुनकर वे परेशान से हो जाते, इसमें उन्होंने कभी स्वयं रुचि नहीं दिखाई । इस विषय में उनके भक्त ने उपयोगिता, परंपरा पालन एवं ईमानदारी संबंधी प्रश्नचिन्ह भी प्रकट किये। उन्होंने मुझे लिखा था कि मैं इसका विरोधी हूँ एवं जैन संदेश में प्रतिवाद प्रकाशित कराना चाहता हूँ । पंडित जी के रुख को भाँप कर यह योजना अनेक बार अनेक कारणों से स्थगित होती रही। परंतु जब यह चर्चा समाचार पत्रों में मतमतान्तरों का विषय बनी और आयोजकों की सदाशयता पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे, तब एक अच्छे चक्रव्यूह का निर्माण-सा प्रतीत होने लगा । विवाद का प्रत्युत्तर संवाद ही है । यह ध्यान में रखकर हमारे मित्र डा० जैन जैसे धुन ' के पक्के व्यक्ति ने इस आयोजन हेतु संकल्प लिया और मैं भी उनके साथ हो गया । इसके कई कारण थे । मुझे उनका यह तर्क बहुत जंचा कि पण्डित जी के समान शास्त्रज्ञ नेमचंद्र सूरि, हेमचंद्र और आशाधर पण्डित के द्वारा निर्दिष्ट गृहस्थों को अपने कर्तव्यों को करने में कैसे बाधक हो सकते हैं ? इससे मैंने सुझाव दिया कि शास्त्रीय निर्देशों के अंतर्गत आने वाले कर्त्तव्यों के प्रति आप तटस्थ रहें । आखिर, इसके बावजूद भी डा० धर्मं सागर जी का अभिनंदन ग्रन्थ प्रकाशित हुआ ही है। यही नहीं, आ० देशभूषण जी का 'आस्था एवं चिन्तन' से उनके आशीर्वचन सहित लोकार्पित हुआ है और अब आचार्य श्री विमल सागर जी के यज्ञ की तैयारी चल रही है । मुझे लगता है कि पूज्य पंडित जी को मेरा निवेदन जँचा अपना कर चक्रव्यूह को तोड़ने जैसा महान् प्रेरणादायी कार्य किया ।
भी आठ वर्ष के प्रयत्न लिये ऐसे ही साहित्यिक और उन्होंने तटस्थ रुख
सूझबूझ एवं वाक्चातुर्य के धनी पण्डित जी के कुछ शिक्षाप्रद स्मरण ७७
सहयोग का अभाव कार्य में उतना बाधक नहीं होता, जितना उसका विरोध । पण्डित जी ने अपने मौन भाव से आयोजकों की सभी बाधायें दूर की ओर उनका शक्ति-संचय बढ़ाया ।
सर्वधर्म सम्मेलन एवं दरगाह शरीफ, अजमेर में प्रवचन, १९५०
महावीर जयंती, १९५० के अवसर पर पंडित जी अजमेर निमंत्रित थे । उस अवसर पर एक सर्वधर्म सम्मेलन आयोजित किया गया था । इसमें लगभग ५००० लोग उपस्थित थे । वक्ता को दूसरे के धर्म पर आक्षेप न करते हुए भाषण की शर्त थी। पर वैदिक प्रतिनिधि ने जैन धर्म को नास्तिक कह ही दिया। पंडित जी तो अनेकान्ती ठहरे। उन्होंने कहा "यदि मैं आपका वेद नहीं मानता, इसलिये नास्तिक हूँ, तो आप भी मुस्लिमों का कुरान, ईसाइयों की बाइबिल और जैनों का मोक्षशास्त्र नहीं मानते, इसलिये आप भी हम सब लोगों की दृष्टि से नास्तिक है ।" पंडित जी ने अस्तित्व का व्युत्पत्ति-लब्ध अर्थ बताया कि अस्तित्व में विश्वास करने वाला आस्तिक कहलाता है । किसका अस्तित्व ? अपना आत्मा का परमात्मा का पुनर्जन्म, परलोक और कर्मफल का किसी का भी अस्तित्व विश्वासी आस्तिक है । यहाँ वैठे सभी लोग आस्तिक हैं क्योंकि वे इनमें से किसी न किसी के अस्तित्व में आस्थावान् हैं ।
पंडित जी के इस वाक्चातुर्य ने सभी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया । वक्तागण तो प्रभावित हुए ही, पर वहाँ की दरगाह शरीफ के मौलवी साहब अत्यंत प्रभावित हुए । उन्होंने पंडित जी से दरगाह शरीफ पर प्रवचन हेतु निवेदन किया । उन्होंने कहा, "सुबह आप हमारे मंदिर आइये । फिर शाम मैं आपके यहाँ चलूँगा ।" सुबह मौलवी साहब जैन मंदिर पहुँचे, पूर्ण शुद्धता और विनय के साथ प्रवचन में बैठे । कर्मणा जैन के विश्वासी पंडित जी को 'जन्मना जैनों' की नजरों में भटकाव दिखा, उन्होंने मोलवी साहब को अपने बगल में बैठने का निवेदन कर लिया और फिर शान्त वातावरण में राजा श्रेणिक द्वारा यशोधर मुनि के गले में सर्प डालने की कथा सुनाई ।
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