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के समय अपनी वृद्धा माता के चरणों में उन्होंने मस्तक रखा और कहा- 'मां, संसार में रहने की मेरी अवधि अब पूर्ण होती है । संसार के सभी कार्यों को मैंने व्यवस्थित और सुचारू कर दिए हैं । अब मैं सयम धारण करने के लिए जा रहा हूं। आप आशीर्वाद दीजिए।'
__माता मरुदेवा ने समझा आदिनाथ किसी नगर में किसी काम से जा रहे हैं। इसलिए आशीर्वाद लेने आये हैं। उन्होंने उनके मस्तक पर हाथ रखा और वात्सल्यपूर्ण शब्दों में कहा'जाओ बेटा, संभल के जाना और जल्दी ही वापस लौट आना।'
आदिनाथजी ने दीक्षा ग्रहण की। विनिता नगरी, समस्त राजवैभव एवं सुख समृद्धि को छोड़कर उन्होंने जंगल का रास्ता पकड़ा। वे जंगल और पहाड़ों की गुफाओं में तपस्या और ध्यान करते हुए कर्म निर्जरा करने लगे। कभी वे पारणे के लिए नगर में आ जाया करते थे शेष समय उनका जंगल में ही बितता था।
माता मरुदेवा को चिंता हुई- मेरे पुत्र आदिनाथ आशीर्वाद लेकर किसी नगर में गए थे। अभी तक आए क्यों नहीं।
उन्होंने एक दिन भरत को बुलाया और पूछा- 'बेटा भरत, तुम्हारे पिताजी किसी नगर में गए हुए हैं। वे अभी तक लौटे क्यों नहीं? कब आएंगे? बहुत समय हो गया। मैंने उनका मुंह नहीं देखा, ऐसा क्या काम है वहां?'
महाराजा भरत को अपनी दादीमां की अज्ञानता और भोलेपन पर हंसी आ गई।
'दादी मां, वे किसी नगर में नहीं गए हैं, उन्होंने तो दीक्षा ले ली है। वे तो जंगल में तप कर रहे हैं । वे अब यहां नहीं आएँगे।' भरत ने माता मरुदेवा को समझाया।
माता मरुदेवा को विस्मय हुआ- 'दीक्षा लेली, यहां नहीं आएंगे? ! ! भरत यह तुम क्या कह रहे हो?'
भरत- हां, दादी मां, मैं ठीक कह रहा हूं । वास्तव में उन्होंने संसार छोड़ दिया है।' माता- ‘अर्थात् वे साधु हो गए हैं ?' भरत- ‘हां दादी मां,।
माता- ‘पर क्यों? यहां उन्हें किस बात की कमी थी। यह राज्य, यह सत्ता, यह महल, यह वैभव, यह संपत्ति, यह सुख उन के लिए कम था। और जब तुम्हें पता था तो उन्हें रोका क्यों नहीं?
अनित्य भावना
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