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गुण हैं । यद्यपि कुल, गण और संघ गुणी संस्थाएँ हैं, तथापि संघ साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इन चारों प्रकार के व्यक्तियों को मिला कर माना जाने से ये भी एक तरह से गुणी व्यक्ति हैं । इसी प्रकार गहराई से देखें तो इन १३ ही का समावेश देव, गुरू और धर्म इन तीनों में हो जाता है । देव में तीर्थंकर और सिद्ध दो का, गुरु में आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गणी, कुल, गण और संघ का, और धर्म में क्रिया, धर्म और ज्ञान का समावेश हो जाता है
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हाँ तो, उपर्युक्त १३ विनययोग्य गुणपात्रों की (१) आशातना न करना, (२) भक्ति करना, (३) इनका बहुमान करना, (४) इनके गुणगान करना, इनके गुणों की प्रशंसा करना, या इन्हें प्रतिष्ठा देना, इन चारों प्रकार से विनय किया जाता है । फलतः १३ बोलों को ४ प्रकार से गुणाकार करने पर विनय के ५२ भेद बनते हैं। अब हम क्रमश: इन पर विवेचन करेंगे :
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तीर्थंकर - विनय
जैन धर्म के पंच परमेष्ठी - मंत्र में सर्वप्रथम तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है, जबकि सिद्ध इनसे पद में ऊंचे होते हैं । इसका कारण यह है कि तीर्थंकर शरीरधारी होते हैं, इसलिए उनके द्वारा अनेक जीवों को शुद्ध धर्म का लाभ मिलता है, कल्याण के मार्ग की प्राप्ति होती है । इस संसार सागर से पार उतरने के लिए जीव उनके द्वारा बनाई गई संघरूपी नौका का आश्रय लेता है । उनके द्वारा शुद्धि, निर्वाण, कर्मक्षय और मुक्ति की प्रेरणा मिलती है । अतः आसन्न - उपकारी होने से उनका नाम पहले लिया गया है। जैसे दादा-परदादा पिता से भी अधिक गुणी थे, या वे भी उपकारी थे, लेकिन वर्तमान में उनकी अविद्यमानता में पिता ही निकट-उपकारी हैं, इसलिए उनका नाम ही विशेषकर लिया जाता है ।
वे तीर्थंकरदेव, देवाधिदेव, साकारदेव, जिनेश्वर, जिन, अरिहन्त, या वीतराग आदि नामों से पुकारे जाते हैं । वैदिक धर्म की भाषा में इन्हें जीवन्मुक्त (सदेह मुक्त ) अवतारी, धर्म (तीर्थ) संस्थापक कहा जा सकता है।
ये १८ दोष-रहित, बारह गुण - सहित होते हैं । जितने भी तीर्थंकर होते हैं, वे सब ३४ अतिशय, ३५ वाणी के गुण, तथा १२ प्रकार की परिषद् से युक्त होते हैं । आठ कर्मों में से ये ४ घाती - कर्मों— (जिनसे आत्मा के गुणों का सीधा घात होता है, उन ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) का सर्वथा क्षय कर देते हैं, शेष ४ अघातीकर्म (जो शरीर से सम्बन्धित हैं, आत्मगुणों का घात सीधे नहीं करते, वे वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु कर्म) रह जाते हैं । वे भी इस शरीर के अवसान तक ही रहते हैं, इस जन्म के शरीर के अवसान के साथ ही वे शेष चारों कर्म
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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