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३१-जीव, और अजीव दो राशी, अर्थात् इस जगत् में चैतन्य, और जड़, यह दो ही वस्तु
पूर्वोक्त जो सामान्य प्रकार से लेख लिखा है, इसका सम्यक् स्वरूप ४ चार निक्षेप, ७ सप्तनय, २ दो प्रमाण स्याद्वादसप्तभंगी की रीति से जाने, तिसको श्रुतधर्म कहते हैं, इस श्रुतधर्म के स्वरूप कथन करने वास्ते ही द्वादशांग गणिपिड़ग श्रुतज्ञान है । इस पूर्वोक्त कथन को जो सम्यक् प्रकारे श्रद्धे, तिसका नाम सम्यग् दर्शन है। यह दोनों ही (द्वादशांगगणिपिडग श्रुतज्ञान, और सम्यग्दर्शन) श्रुतधर्म में गिने जाते हैं। यह संक्षेप से श्रुत धर्म का स्वरूप कथन किया। तथा अरिहंत परमेश्वर की जो त्रिकाल विधि से पूजा करनी, तीर्थ की प्रभावना करनी, वात्सल्यता करनी, इत्यादिक सर्व सम्यक्त्व की करणी है ।
अथ दूसरा चारित्रधर्म, सो तीर्थंकरों ने दो प्रकार का कथन किया है। एकसाधु धर्म १, और दूसरा गृहस्थ धर्म २। तिनमें साधुधर्म सत्रह १७ भेदे संयम-५ पांचमहाव्रत (प्राणातिपातविरमण १, मृषावादविरमण २, अदत्तादान विरमण ३, मैथुन विरमण ४, और परिग्रह विरमण ५) क्रोध १, मान २, माया ३, लोभ ४, इनका त्याग । पांच इंद्रियों के विषय से निवृत्ति ५ । मनदंड १, वचन दंड २, कायादंड ३, इन तीनों का त्याग । एक सर्व सत्रह १७ भेद संयम के पाले तथा क्षमा १, मार्दव २, आर्जय ३, निर्लोभता ४, लाघव अकिंचनता ५, सत्य ६, संयम ७, तप ८, शौच ९, और ब्रह्मचर्य १० यह दस प्रकार का यति धर्म पाले । ४२ बैतालीश दूषण रहित भिक्षा लेवे । रात्रि को चारों आहार (अन्न, पाणी, खादम स्वादम) न करे । वासी न रखे। बिना कारण एक ग्राम नगर में सदा न रहे। किसी मकान का वा चेला, चेली, श्रावक, श्राविका का ममत्व न रखे। किसी प्रकार की बिना कारण असवारी न करे । पक्षी की तरह अपने धर्मोपकरण लेके नंगे पगों से ग्राम नगरों में विहार करके जगज्जन चारों वर्गों को धर्मोपदेश करे। धर्म सुनने वालों के पास से किसी प्रकार की चढ़त न लेवे । भिक्षा भी थोड़ी थोड़ी बहुत घरों से लेवे। भिक्षा ऐसी लेवे, जिससे भिक्षा देने वाले को किसी प्रकार की पीड़ा न होवे । चातुर्मास में लकड़ी के पाट ऊपर,
और शेष आठ मास में भूमि के ऊपर शयन करे । जो कोई शत्रुता करे, तिसका भी कल्याण चाहे । इत्यादि अनेक शुभ गुणों करके संयुक्त जो पुरुष होवे, तिस पुरुष को जैनमत में साधु मानते हैं। और तिसका जो कर्तव्य होवे तिसको साधु का धर्म कहते हैं। यह साधु धर्म का संक्षेप से कथन
अब दूसरा गृहस्थ का धर्म संक्षेप से कथन करते हैं ॥
गृहस्थ धर्म दो प्रकार का है। अविरतिसम्यग् दृष्टि १, और देशविरति २ ॥ अविरति जैन धर्म का स्वरूप
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