________________
क्रोधादिदोषनिकुरम्बमरं पिधेहि
दुःखांकुरोद्दलनतत्परतां विधेहि ॥३९ ॥ हे भगवन् ! आप समस्त समुदाय के सुसंयमी साधु-वर्ग को प्रसन्नचित्त रखते हैं, आप उनके क्रोधादि दोषों को दूर करने में और दुःखों के अंकुरों को दूर करने में अहर्निश तत्पर रहते हैं
स्वाध्यायसंयमतप:सु परायणोऽपि, कामक्रुदादिभटराजिविराजितेन । मोहद्विषा मुनिपते ! तव सेवकोऽपि,
वध्योऽस्मि चेद् भुवनपालक ! हा हतोऽस्मि ॥४०॥ हे मुनिपते ! मैं अहर्निश स्वाध्याय, संयम और तप में परायण होता हुआ भी काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, मोहादि शत्रुओं के रहते, आपका सेवक होने पर भी हे भुवनपालक ! मैं बुरी तरह से मारा गया हूँ।
सम्प्राप्तभग्नवरसंयमपोतकाष्ठं पुण्यक्रयाणकविहीनमतीव दीनम् । पाहि प्रभो ! विशदबोधवस्त्रया मां,
सीदंन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः ॥४१ ॥ हे प्रभो ! मुझ टूटे हुए को श्रेष्ठ संयम प्राप्त हुआ फिर भी मैं पुण्यरहित अति दीन हूँ, अत: हे प्रभु अपने विशद श्रेष्ठ बोध से मेरी रक्षा करो, क्योंकि मैं आज दुःखों से परिपूर्ण संसार-सागर से अत्यन्त पीड़ित हूँ।
ज्ञानप्रचारकृदलं परवादिजेता, विस्तारयन् मुनिगणेऽमलसंयमद्धिम् । भूया मुनीश्वर ! पुनर्जिनशासनस्य,
स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ॥४२॥ हे मुनीश्वर ! आप ज्ञान का प्रचार करने में और दूसरे वादियों को जितने में पूर्णरुपेण समर्थ हैं, अत: आप फिर से जिनशासन में उत्पन्न हो यानि हे स्वामी ! आप ही इस जिनशासनरुपी भवन में भवान्तर में भी जन्म लें।
कृच्छ्राणि यान्ति विलयं सुखमेधते च,
श्री विजयानंद प्रशस्ति
४३५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org