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ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥३१ ॥ हे ऋषिराज ! संविज्ञमार्ग का आश्रय लेने वाले जिन्हें जिनेश्वर प्रतिपादित धर्म का बोध नहीं है वे लोग आपको रोकते हैं परंतु हे स्वामिन् ! तीव्र वचन वाले ढूण्ढ़क सम्प्रदाय के भी आप पूज्य है ।
य: शान्तिसागर इति प्रथिताभिधान, शास्त्रैश्च युक्तिवचनैः प्रतिबोधितोऽपि । मेने वचो न भवतो विदधे हठेन,
तेनैव तस्य जिन ! दुस्तरवारिकृत्यम् ॥३२ ॥ हे सूरीश ! जो शान्तिसागर नाम से विख्यात है, उसे युक्तिवचन एवं शास्त्रार्थ के द्वारा प्रतिबोधित करने पर भी आपके वचनों को हठ से अस्वीकार किए जाने पर उसका संसार सागर से पार उतरना दुष्कर हो गया।
जातेषु भूरिषु बुधेषु च सम्मतेषु, सूरीश ! ते मुनिषु हुक्ममुनिर्बत स्वम् । ना मुञ्चदेव मुनिदेव ! दुराग्रहं यं,
सोऽस्याभवत् प्रतिभवं भवदुःखहेतुः ॥३३॥ हे सूरीश ! बहुत से विद्वानों ने सम्प्रदायों ने और मुनियों में हुक्म मुनि नामक मुनि ने अपना कदाग्रह छोड़ा नहीं तो वही कदाग्रह उनके भव संसार के दुःखों का हेतु बना।
ते धर्मिण: सुमनस: सुमन: समूहै:, संसेविता: शिवरमाश्रयिणो भवन्ति । येऽभ्यर्चयन्ति सुमनास्सुमनोभिरीड्यं,
पादद्वयं तव विभो ! भुवि जन्मभाज: ॥३४॥ धर्मी लोग श्रेष्ठ मनवाले, पुष्पोंके समूह से सेवनीय और मोक्ष की लक्ष्मी के आश्रयवाले होते है । हे विभो ! जो लोग पुष्पों के द्वारा आपके दोनों चरण-कमलों की सेवा करते हैं, वे धन्य
है
न्यासीकृते स्वहृदये भगवंस्त्वदाज्ञा मन्त्रे शुभे पथि च संचरतां यथेष्टम् । मोहोरगस्रिजगतीजनभीतिदायी,
श्री विजयानंद प्रशस्ति
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