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श्याम आशयवाले और जडयुक्त सस्नेह आवाज करने वाले शरीर को धारण करने पर भी उन्हे अपने गुण ही ऊपर की ओर ले जाते हैं; जैसे कि पवन बादलों को सोने के मेरु पर्वत की ओर ले जाता हैं।
वृत्तिर्मुनीश ! मनसो विपरीतमार्ग, यान्ति त्वया परिहता चिरलालितापि।। दुश्चेष्टितं समवलोक्य निजाङ्गनाया,
नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि ॥२४॥ हे मुनीश !आपने लंबे काल से पाली हुई वृत्तियों को विपरीत मार्ग में जाती हुई देखकर उनका परित्याग कर दिया। जिस प्रकार अपनी पत्नी की कुप्रवृत्तियों को देखकर ऐसा कौन सचेत व्यक्ति है होगा जो विरक्ति को प्राप्त नहीं होता है ? अर्थात् होता है ।
सत्पू: प्रवेशसमयादिमहोत्सवेषु नागाङ्गनादितिजकिन्नरजीयमानां। कीर्ति तनोति दिवि देव ! गंभीरघोषो
मन्ये नदन्नभिनभ: सुर ! दुन्दुभिस्ते ॥२५ ॥ हे देव !श्रेष्ठ नगरियों के प्रवेश आदि महोत्सवों के समय जब नागकन्याएं किन्नरों के द्वारा गीत गाती हुई आकाश में आपकी कीर्ति फैलाती हैं तब ऐसा लगता है मानो गंभीर ध्वनि आवाज से आकाश में देवों की दुन्दुभियाँ न बज रही हों।
अद्यापि देव ! जिनशासनरक्षणार्थ, यासि त्वमेव जनलोचनगेम्वरत्वम्। सत्कान्ति-हंस-कमलाभिधवर्यशिष्य
व्याजात् त्रिधा धृततनुर्बुवमभ्युपेतः ॥२६॥ हे देव ! जिनशासन की रक्षा के लिए आप आज भी लोगों की आँखों के चमकते सितारे हो । क्योंकि मुनिराज श्री कान्तिविजय, मुनि श्री हंस विजय और मुनि श्री कमल ‘वजयजी नाम के तीनों शिष्यों से मानों आप ही तीनों शरीर को धारण किये हुए हो?
कामादिदुर्दमभटैरसमैर्मुनीशा, ऽभेद्येन् मोहनृपति प्रबलं जिगीषुः । सज्ज्ञान-दर्शन-सुसंयमसंज्ञवज्र,
श्री विजयानंद प्रशस्ति
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