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श्री विजयानंद प्रशस्ति
D मुनि श्री चतुर विजय श्रेय:श्रियां विमलकेलिगृहं विकाशि, पादारविन्दयुगलं नृसुरौघसेव्यम् । भव्याङ्गिनां भवमहार्णवतारणाय,
पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१॥ मोक्ष- लक्ष्मी के विमल केलि-गृह स्वरूप, मनुष्यों और देवताओं के समुदाय से सेवनीय विकसित चरण-कमल युगल जो भव्य प्राणियों के लिए समुद्र स्वरूप संसार को पार करने के लिए जहाज तुल्य हैं, ऐसे जिनेश्वर चरणों को प्रणाम करके
कीर्ति: सितांशुसुभगा भुवि पोस्फुरीति, यस्यानघं चरिकरीति मनो जनानाम् । आनन्दपूर्वविजयान्तगसूरिभर्तु,
स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ॥२॥ पृथ्वी पर जिनकी स्वच्छ किरणरूपी कीर्ति प्रस्फुरित होती है, जिनका पवित्र मन मनुष्यों के पापों को दूर करता है, ऐसे महामहिम विजयानंद सूरिजी महाराज की मैं संस्तवना करूँगा।
मन्दोथ पुण्यविकलोकृत दर्शनोपि, मादृक् कुतः प्रभवति स्तवने शताब्द्याम् ? आजन्मदृष्टतपनो न कदाप्युलूको,
श्री विजयानंद प्रशस्ति
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