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श्री विजयानंद सूरि साहित्य प्रकाशन फाउंडेशन,
पावागढ़ जैन धर्म में संत साहित्यकारों की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। धर्मतत्त्व को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उन्होंने हमेशा सरल-सुबोध जन भाषा में अपनी रचनाएं की हैं। प्राकृत और संस्कृत भाषा के अतिरिक्त अपभ्रंश, राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी आदि भाषाओं में उनका विपुल साहित्य उपलब्ध होता है । खड़ी बोली हिन्दी के बीज श्री हेमचन्द्राचार्य जी के साहित्य में दृष्टिगोचर होते है। श्रुतकेवली भद्रबाहु से लेकर हरिभद्र, हेमचन्द्र, समयसुन्दर, उपाध्याय यशोविजय, विनयविजय, उदयरत्न और वीरविजय तक जैन संत साहित्यकारों की ऐसी परंपरा है जिन्होंने ज्ञान और विद्या का कोई भी ऐसा विषय नहीं छोड़ा जिनका उन्होंने वर्णन न किया हो।
जैन संत साहित्यकारों की इसी परंपरा के उज्जलतम नक्षत्र थे न्यायाम्भोनिधि आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी महाराज।
उन्होंने कुल तेरह पुस्तकें लिखी हैं। १. नवतत्त्व
२. जैन तत्त्वादर्श भाग-१ ३. जैन तत्त्वादर्श भाग-२
४. सम्यक्त्व शल्योद्धार ५. जैन मत वृक्ष
६. चतुर्थ स्तुति निर्णय भाग-१ ७. चतुर्थ स्तुति निर्णय भाग-२
८. जैन धर्म विषयक प्रश्नोतर ९.चिकागो प्रश्नोतर
१०. तत्त्वनिर्णय प्रासाद ११. ईसाई मत समीक्षा
१२. जैन धर्म का स्वरूप १३. अज्ञान तिमिर भास्कर
उनका सम्पूर्ण गद्य साहित्य सौ वर्ष की पुरानी हिन्दी में है जो बहुत कम समझ में आता है और वह अप्राप्य भी हो गया था। परमार क्षत्रियोद्धारक, चारित्र चूडामणि, जैन दिवाकर, शासन शिरोमणि, आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वरजी महाराज की यह हार्दिक अभिलाषा और प्रेरणा थी कि उनकी इस स्वर्गारोहण शताब्दी के उपलक्ष्य में उनके इस सम्पूर्ण साहित्य का आधुनिक हिन्दी में प्रकाशन हो और उनके साहित्य को घर-घर में पहुंचाया जाए। उनकी प्रेरणा के अनुरूप उनके सम्पूर्ण साहित्य के प्रकाशन के लिए श्री विजयानंद सूरि साहित्य प्रकाशन फाउंडेशन की स्थापना की गई। इसका प्रधान कार्यालय पावागढ़ तीर्थ में रखा गया।
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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