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प्रीति अनादिनी दुःख भरी, मन कीधी हो पर पुद्गल संग। जगत भमियों तिन प्रीति सों, सांगधारी हो नाच्यो, नवनवरंग ॥३॥ जिसको अपना जाणिया, तिन दीया हो, छिन में अति छेय। पर जिन केरी प्रीतड़ी, मै देखी हो, उनते निस नेह ॥४॥ मेरो नहीं कोई जगत में, तुम छोड़ी हो जग में जगदीश। प्रीत करूं अब कौन सों तुम त्राता हो, मोने विस्वांबीस ॥५॥ आतमाराम तो माहरो सिर हेसरा हो, हेड़ा नवहार। दीन दयाल किरपा करके,
मुझ बेगा हो, पार उतार ॥६॥ उपरोक्त रचना में पंजाबी, गुजराती, देशी भाषाओं और राजस्थानी डिंगल भाषा का पुट स्पष्ट है। कुछ शब्द जैसे साहिब, किरसन और निर्धनियां जैसे कबीर की रचना की सधुक्कड़ी भाषा के कहे जा सकते हैं।
वस्तुत: भक्त के हृदय से फूटे स्वर स्वम्भू संगीत होते हैं और शब्द अनमोल हो जाते हैं। इसी तरह भक्ति के स्वर स्वयम् में छन्द होते हैं ।
आचार्य श्री विजयानन्द सूरि जी से कुछ शती ही पूर्व भक्त रैदास, दादू, फरीद और गुरु नानक जी ने जो रचनाएं की भक्ति प्रधान होने से उनमें भी आचार्य श्री जी की तरह ही अनेक भाषाओं का मिला जुला प्रयोग हुआ है।
यद्यपि पूजा स्तवनों में प्राय: प्रचलित राग रागनियों के दर्शन होते हैं। पीलू, आसखरी,
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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