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बुनियादी नीति के अन्तर्गत, अंग्रेजों ने कठोर नियम बनाया। तद्नुसार अंग्रेजी पढ़े व्यक्ति को यदि डेढ़ सौ रुपए वेतन दिया गया तो देशी भाषाओं के पढ़े हुए कर्मचारियों को मात्र पचास रुपए वेतन ही दिया जाने लगा।
अंग्रेजी, अंग्रेजीराज और ईसाई धर्म का खुलकर प्रचार-प्रसार होने लगा और भारतीय धर्म एवं संस्कृति की खिल्ली उड़ाई जाने लगी।
भारतीय जन को अंग्रेज भक्त बनाया जाने लगा। रूप रंग से काले भारतीय होने पर भी वे नए भारतीय काले साहब लोग हृदय से अपने आप को अंग्रेज समझने लगे।
ऐसे ही भयानक काल में हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल का श्रीगणेश हुआ जिस में फोर्ट विलियम कालिज कलकत्ता के लल्लू जी लाल, सदल मिश्र और इंशाल्ला खां ने क्रमश: हिन्दी में लघु कथाओं का सृजन किया।
इन्हीं दिनों राम सेवक निरंजनी के योग वाशिष्ठ का हिन्दी अनुवाद जो देखने में आया तो उसकी भाषा और शैली भी वैसी ही है।
भारतेन्दु वि. सं. १९०७ से १९४१ वि. सं. में हुए है । इन्होंने कुल पैंतीस वर्ष की आयु पाई और इसी अल्प जीवन काल में लगभग ३३५ हिन्दी ग्रन्थों की रचना की। भारत दुर्दशा, मुद्रा राक्षस इत्यादि उनकी अत्यन्त परिपक्व एवं श्रेष्ठ रचनाएं है।
यही काल था हिन्दी गद्य और पद्य के प्रचुर नव सजृन एवं प्रचार प्रसार का। अनेक काव्य, नाटक, आख्यान एवं कथाएं उन दिनों लिखी गई । यह उन्नीसवीं शताब्दी का आरम्भ था।
पंजाब से आचार्य श्री विजयानन्द सूरि और गुजरात से महर्षि दयानन्द सरस्वती की हिन्दी रचनाएं प्रकाश में आकर समादृत हुई । ये दोनों महापुरुष भारतीय अध्यात्म और हिन्दी का ध्वज ऊंचा करके कार्य क्षेत्र में आगे बढ़े
__ आचार्य श्री विजयानन्द सूरि की समस्त रचनाएं उत्कृष्ट हैं, पर अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव की दृष्टि से चिकागों प्रश्नोत्तर ग्रन्थ ने भारत के सांस्कृतिक विनाश को रोकने और मातृभूमि की अस्मिता की रक्षा में बहुत योगदान दिया।
__ इन्होंने फिरंगी द्वारा किए जा रहे ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में अपनी समर्थ हिन्दी रचनाओं द्वारा एक जोरदार कील ठोंक दी । इससे भारतीय संस्कृति की चादर में पड़ रही झोल
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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