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यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है कि ईसाई मिशनरियों ने समाज सेवा के बहाने भारतीय लोगों को ईसाई बनाने का काम फिर भी जारी रखा। महात्मा गांधी भी इनके कामों को सन्देह की दृष्टि से देखते थे। उन्होंने एक बार लिखा था- “विदेशी मिशनरियां के विषय में मेरे विचार किसी से छिपे नहीं है। मैंने कई बार मिशनरियों के सामने अपने विचार प्रगट किए हैं। यदि विदेशी मिशनरी शिक्षा और चिकित्सा सम्बन्धी सहायता जैसे मानवीय सहानुभूति के कामों तक अपनी प्रवृत्तियों को सीमित करने के स्थान पर उन्हें दूसरों का धर्म छुड़ाने के लिए काम में लाएंगे तो मैं दृढ़ता पूर्वक उन्हें कहूंगा कि ये चले जाएं । हरेक जाति अपने धर्म को दूसरे धर्म के समान अच्छा समझती है। भारत की जनता के धर्म निश्चय पूर्वक उनके लिये पर्याप्त है। भारत को एक धर्म की अपेक्षा दूसरे धर्म की श्रेष्ठता की आवश्यकता नहीं। इसी लेख में उन्होंने आगे लिखा था, “धर्म एक व्यक्तिगत विषय है। उसका संबंध हृदय से है। क्योंकि एक डाक्टर ने, जो अपने आप को ईसाई कहता है, मेरे किसी रोग की चिकित्सा कर दी तो उसका अर्थ यह क्यों हो कि डाक्टर मुझे अपने प्रभाव के अधीन देख कर मुझ से धर्म परिवर्तन की आशा रखे? क्या रोगी का स्वस्थ हो जाना और उसके परिणाम से सन्तुष्ट होना ही काफी नही? फिर यदि मैं ईसाईयों के किसी स्कूल में पढ़ता हूं तो मुझ पर ईसाइयत की शिक्षा क्यों ठोसी जाए? मैं धर्म परिवर्तन के विरूद्ध नहीं। किन्तु उस के वर्तमान ढंग के विरूद्ध हूं। आज तक धर्मपरिवर्तन एक धन्धा बना रहा है । मुझे याद है कि मैंने एक मिशनरी की रिपोर्ट पढ़ी थी। उस में उस ने बताया था कि एक व्यक्ति का धर्म बदलने पर कितने रुपए का खर्च होता है। यह रिपोर्ट पेश करने के बाद उस ने 'भावी फसल' के लिए बजट पेश किया था।"
श्री विजयानंद सूरि एवं ईसाई मिशनरी
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