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श्रीमद् विजयानंद सूरि और मूर्तिपूजा
- साध्वी श्री किरणयशा श्री सत्य गवेषक, तार्किक शिरोमणि, पंजाब देशोद्धारक, न्यायाम्भोनिधि, आचार्य श्रीमद विजयानंद सूरीश्वरजी महाराज प्रथम स्थानकवासी परम्परा में दीक्षित हुए थे। स्थानकवासी सम्प्रदाय जैन धर्म का वह सम्प्रदाय है जो मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करता और मुख पर हमेशा पट्टी बांधे रखता है यही दो इस सम्प्रदाय की प्रमुख पहचान है। इस सम्प्रदाय में दीक्षित होने के कारण पूज्य श्री विजयानंद सूरि (आत्माराम) महाराज भी मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं रखते थे और मुख पर पट्टी बांधते थे। बाद में उन्होंने जैन आगम का गहन अध्ययन किया तो उन्हें पता चला कि जिस सम्प्रदाय में मैं दीक्षित हुआ, वह आगम सम्मत नहीं है। कई वर्षों तक वे मनोमंथन करते रहे । वि. सं. १९२०के आगरा चातुर्मास में उन्हें सम्यग् दृष्टि प्राप्त हुई। इस सम्यग्दृष्टि को देने वाले थे, स्थानकवासी संत शिरोमणि श्री रत्नचंदजी महाराज।
मुनि श्री रत्नचंदजी से उन्होंने आगरा में आचारांग, स्थानांग, सूत्रकृतांग, समवायांग, नंदी, व्याख्या प्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना, बृहत् कल्प, व्यवहार, निशीथ, दशा श्रुत स्कंध, षट्कर्मग्रन्थ, संग्रहणी, क्षेत्र समास, सिद्धपंचाशिका, सिद्ध पाहुड, निगोद छत्तीसी, पुद्गल छत्तीसी और नयचक्रसार आदि शास्त्रों का मननपूर्वक परावर्तन किया। जब मुनि श्री रत्नचंदजी को दृढ़ विश्वास हुआ कि आप सत्य गवेषक जिज्ञासु आत्मा है और सत्य जानकर, स्वीकार कर जीवन में अपनाने वाले हैं तब तो दिल खोल कर अपनी निजि विद्यासम्पत्ति उन्होंने आपको समर्पित कर दी।
इस अध्ययन से पू. गुरुदेव को निश्चय हो गया कि मेरे मतवाले ३२ मूलागम और उसके ३५२
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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