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था। ढूंढक पंथ के दुर्जेय दुर्ग को ध्वस्त करने में यथेष्ट सफलता की प्राप्ति के बाद श्री सिद्धाचल महातीर्थ पर आदीश्वर दादा के दर्शन से कृतका होने एवं सद्गुरू की खोज हेतु आपने गुजरात की ओर विहार कर दिया। मार्ग में स्थान-स्थान पर स्वागतातुर जनता को लाभान्वित करते, तीर्थभूमियों की स्फर्शना करते हुए आप शत्रुजय ऋषभप्रभु के दरबार में आ पहुंचे। कई दिनों तक यात्रा का अपूर्व आनन्द प्राप्त कर संवेगी दीक्षा हेतु धर्मनगरी अहमदाबाद पधार गए।
सत्य की खोज में निकला पथिक अधिकतम सत्य पर पहुंच कर चैन की श्वास लेता है। मुनि श्री चाहते तो दिगम्बरत्व अपना लेते या किसी अन्य गच्छ समुदाय में दीक्षित हो जाते, परन्तु आप वास्तव में सत्य गवेषक थे। आप यह निर्णित कर चुके थे कि वीर परम्परा का अखंड प्रतिनिधित्व मात्र तपागच्छ के पास है, भगवान की आज्ञा के प्रति निष्ठा एवं पालन यहां ही है।
सत्य का पक्षपाती होने के साथ मुनि श्री अद्वितीय निस्पृही एवं निराभिमानी भी थे। ढूंढक पंथ में मिलते आदर-मान को ठोकर मार कर अपने २२ वर्ष के संयम पर्याय की परवाह न करते हुए वयोवृद्ध मुनि श्री बुद्धिविजयजी से महावीर प्रभु की सनातन प्रवज्या अंगीकार की। शास्त्र सम्मत मुनिवेष धारण करने का आप एवं साथी मुनिराजों को वैसा ही आनंद हुआ, जैसा किसी जीव को नारकीय यातना के बाद देवलोक के दिव्य सुखों से होता है। अत: गुरु बुद्धिविजय जी (बूटेरायजी महाराज) ने आपका नाम आनन्द विजय रखा। शेष मुनिवृन्द आप ही का शिष्य प्रशिष्य घोषित हुआ। ब्रह्मचर्य से उद्दीप्त चारित्र
मुनिवेश की सार्थकता ब्रह्मचर्य के निरतिचार निष्ठापूर्ण पालन में हैं । देवी रूपा के लाल की चारित्र चादर भी रूपा (चांदी) की भांति ही उज्जवल थी सर्वथा बेदाग़ । उनके ब्रह्मतेज का ही आलौकिक प्रभाव था कि उनके दर्शन मात्र से समस्त शारीरिक एवं मानसिक व्याधि दूर हो जाती थी। वाणी में मेघ जैसा गर्जन, देवसदृश दृढ़काय, निडर व्यक्तित्व आदि अनेक वन्दनीय गुणों का मूल कारण यदि कोई है तो वह नैष्ठिक ब्रह्मचर्य, जिसके प्रताप से सदा जयकमला उनकी चरणदासी बनी रही। जैन प्रजा ने आपकी अतुल गुणराशि से आकर्षित होकर तपागच्छ में लगभग तीन शताब्दियों से रिक्त आचार्य पद पर आपको सिंहासनारूढ़ किया। नमस्कार महामंत्र के मध्यपद के गौरव में अभिवृद्धि करते हुए आप विश्व विश्रुत विरल विभूति के रूप में प्रसिद्ध हुए और वीतराग प्रभु के शुद्ध सिद्धान्तों को पुन: प्रतिष्ठित कर सके। गुरु तव ज्ञान अपारा
चारित्र स्वर्ण है तो ज्ञान उसकी सुगन्ध । पू. आत्मारामजी महाराज में इन दोनों का अपूर्व
समर्पित शासन सेवक
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