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श्री विजयानंद सूरि : कवि रूप में
- प्रो. रामकुमार जैन काव्य हृदय का प्राकृत स्पन्दन है। वह स्पन्दन प्रकृति द्वारा या पूर्व संचित सुकर्मों द्वारा जिस भावरसज्ञ व्यक्ति को जितना अधिक प्राप्त होता है, उस व्यक्ति को काव्य प्रतिभा उतनी ही अधिक मात्रा में प्राप्त होती है। प्रतिभा केवल उत्कृष्ट बुद्धि ही नहीं है, अपितु प्राचीन प्रतिपादित वस्तु-परिख्यान में भी जो नवीनता के दर्शन करादे, वह प्रख्यापनीय प्रतिभा है। इसलिए तो 'काव्य प्रकाश' में कहा गया है 'नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धिप्रतिभा'।
पूर्व कवियों ने क्या कुछ नहीं कहा है ? भौतिक जगत का या आध्यात्मिक जगत का कौन सा कोना उनकी प्रतिभा-दृष्टि से अनिरीक्षित रहा है? परंतु जैसे वृक्ष प्रत्येक वर्ष पतझड़ में अपने पुराने पत्ते गिरा देते हैं और फिर वसंत में नवीन पत्र धारण करते हैं । इसी प्रकार सहज कवि प्राचीन वर्णनों में नवीन कल्पना, शब्द शक्ति, नवस्पन्दन का रस संचारित कर कविता को नवीन अभिरामता से सम्पन्न कर देते हैं। नैसर्गिक कवि चेतन को अचेतन और अचेतन को चेतन का रूप प्रदान कर - कविरेक प्रजापतिः' का पद प्राप्त कर लेते हैं।
गुरुराज विजयानंद सूरीश्वर का नाम ही स्वयं कविता का आनंद प्राप्त कराता है। न्यायाम्भोनिधि श्री विजयानंद सूरीश्वर का स्वनामधन्य ही अनुप्रास अलंकार और माधुर्यगुण से सुरम्यता प्राप्त कर मन-मयूर को नर्तन करने पर विवश कर देता है। उनके काव्यत्व पर प्रकाश डालने के लिए तो एक महानिबन्ध की आवश्यकता है । इस संक्षिप्त निबंध में तो केवल पीयूष के दो बूंट ही पान किए जाते हैं। गुरुराज शत्रुजय अक्षय तीर्थ पर महिमामय प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के दर्शन
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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