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षड्-दर्शन का मूल
ग्रीष्म ऋतु के आगमन का एक दिन । प्रातः से ही सप्ताश्वारोही भगवान भास्कर अपनी संतप्त किरणें पृथ्वीतल पर बिखरने लगे थे। दोपहर की गर्मी से प्रजाजनों के कंठ सूखने लगे थे और उनका जीना असह्य हो गया था। मारे गर्मी के सब बेचैन हो उठे थे ।
ऐसी परितप्त दोपहरी में मुनियों की एक टोली एक गाँव से दूसरे गाँव में विहार करते हुए पहुँची । उनके पात्र में जल की एक बूँद तक न थी और जो कुछ था, वह खत्म होने की तैयारी पर था । क्षुधा और तृष्णा से सब का बुरा हाल था । यहाँ श्रावकों की बस्ती न थी कि जहाँ से उष्ण जल की प्राप्ति हो सकती थी ।
मुनिवृंद किसी तरह गाँव में पहुँचा। बचा खुचा जल भी उपयोग में आ चुका था । स्नान के लिए गर्म किया गया, उबाला हुआ पानी कहीं से उपलब्ध हो जाएगा, इस आशा और अपेक्षा से दो-तीन मुनियों ने पूरी बस्ती का चक्कर लगाया । गली-गली और मुहल्ले-मुहल्ले परिभ्रमण किया । परंतु हर स्थान से निराश लौटना पड़ा । साधुवृंद के उपयोग का जल कहीं प्राप्त न हुआ । एकाध पल के लिए सब को ऐसा प्रतीत हुआ कि कदाचित् जल के बिना ही पूरा दिन काटना पड़ेगा। एक तो भरी दोपहरी की असह्य गर्मी तिसपर पंजाब की खुश्क भूमि ! ऐसे में गर्म पानी भला कौन करता !
खैर, जल न मिले, तो न सही। किंतु कहीं छाछ तो मिल जाएगी न ? मुनिवृंद ने जल की आशा छोड़ छाछ की खोज शुरू की । कैसा भी देहात क्यों न हो, छाछ मिलने की संभावना अवश्य होती है । अत: कहीं न कहीं से छाछ अवश्य मिल जाएगी ।
किंतु छाछ की खोज में गए मुनिजनों को हर दरवाजे से निराश लौटना पड़ा। इधर जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया समस्या अधिकाधिक गंभीर होती गई । मुनिवृंद को आज तक ऐसी कठिन परिस्थिति का सामना नहीं करना पड़ा था। कुल मिला कर परिस्थिति अत्यधिक विकट स्वरूप धारण करती चली गई। सभी गहरे सोच में डूब गए।
ऐसे में एक घर के द्वार पर बैठा एक वयोवृद्ध गृहस्थ दृष्टिगोचर हुआ । उसने मुनिजनों के मुख पर अंकित परिश्रम की व्यथा मन ही मन भाँप ली। उसने उन्हें संबोधित कर विनीत स्वर में कहा: “हे संतजनों ! आप किस कारण व्यथित हैं ? आपको क्या चाहिए, तनिक मुझे भी तो बताइए । "
प्रत्युत्तर में एक मुनि ने संक्षेप में जैन श्रमण के आचार विधि से उसे अवगत कर, अपनी
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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