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उन सभी का लक्ष्य यही था। उनका यह धर्म प्रचार केवल भारत तक ही सीमित नहीं था। उन्होंने श्रीवीरचंद राघवजी गांधी को जैन धर्म का प्रतिनिधि बनाकर विदेश भेजा और उनके माध्यम से उन्होंने जैन धर्म का प्रचार विदेशों में भी करवाया। एक शताब्दी पूर्व जैन धर्म को विश्व के रंग मंच पर रखने वाले वे जैन धर्म के प्रथम आचार्य थे।
उस समय जैन धर्म की श्रमण परंपरा में जैन धर्म और दर्शन का अधिकारी विद्वान पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज को छोड़कर अन्य कोई नहीं था। वे अपनी अगाध विद्वत्ता एवं अपने धर्म के प्रचार के लिए जितने भारत में प्रसिद्ध थे, उतने ही विदेशों में भी थे। कई विदेशी विद्वान उनसे जैन धर्म के विषय में मार्गदर्शन लेने के लिए आते थे। जिनमें पीटरसन, ए एफ. रुडोल्फ, डॉ. हार्नल आदि प्रमुख हैं।
ए एम. रुडोल्फ संस्कृत और प्राकृत के अच्छे विद्वान थे । 'उपासक दशांग' सूत्र का उन्होंने अनुवाद और संपादन किया है। जब वे इस सूत्र का सम्पादन कर रहे थे उस समय उन्हें सूत्रों के गूढार्थ को समझने में कठिनाई उत्पन्न हुई। इस कठिनाई को पूज्य श्री आत्मारामजी ने बड़ी सरलता से दूर की थी। उनके अगाध और अपरिमित ज्ञान से रुडोल्फ महोदय इतने प्रभावित
और श्रद्धानत हो गए कि अपने द्वारा अनुदित एवं संपादित 'उपासक दशांक' को उन्हीं के कर कमलों में निम्न लिखित समर्पण-स्तुति करके अर्पित किया। दुराग्रहध्वान्त विभेद भानो,
हितोपदेशामृतसिंघुचित्ते । संदेह संदोहनिरासकारिन्,
जिनोक्त धर्मस्य धुरंधरोसि ॥१॥ अज्ञान तिमिर भास्कर मज्ञान,
निवृत्तये सहृदयानाम् । आर्हत्तत्वादर्श ग्रन्थ
मपरमपि भवान्कृत ॥२॥ आनंद विजय श्री मन्नात्माराममहामुने।
मदीय निखिल प्रश्नव्याख्यात: शास्त्रपारग॥ कृतज्ञता चिन्हमिदं ग्रन्थसंस्करणं कृतिन्,
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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