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सम्वत् बतीसौ ओगणीसे, मास वैशाख आनंद भयोरे ।
पालीताणा शुभ नगर निवासी, ऋषभ जिनंद चन्द दर्श थयोरे ॥१२॥ इस स्तवन का चौथा पद है -
दूर देशान्तर में हम उपने, कुगुरु कुपंथ को जाल पर्यो रे।
श्री जिन आगम हम मन मान्यो, तब ही कुपंथ को जाल जो रे ॥ इस पद के द्वारा उन्होंने परमात्मा से अपनी सम्पूर्ण आत्म-कथा कह दी है। वे परमात्मा से कहते हैं कि मैं यहां शत्रुजय तीर्थ से बहुत दूर देशान्तर पंजाब में उत्पन्न हुआ। फिर स्थानकवासी पंथ में दीक्षित हुआ। पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज के लिए स्थानकवासी गुरु कुगुरु थे और पंथ कुपंथ था। वे इसे एक जाल समझते थे। उनका कहना था कि पंजाब में जन्म लेकर मैं उस कुगुरु
और कुपंथ के जाल में फंस गया था। फिर श्रीजिन आगमों को मैने पढ़ा। उनके सत्य को माना तब जाकर वह कुपंथ का जाल नष्ट हुआ।
आत्माराम जी महाराज को इस बात का दुःख था कि मैं पंजाब में उत्पन्न हुआ और वहां उत्पन्न होकर आगम विरुद्ध पंथ स्थाकवासी परंपरा में दीक्षित हुआ।
शत्रुजय की यात्रा करके वे पुन: अहमदाबाद आए । मुनि बुद्धि विजयजी से ई. सन् १८७४ में संविज्ञ परंपरा की दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के समय उनके नाम और गुरु परिवर्तित किए गए। वे निम्न हैं
दीक्षा पूर्व नाम १. आत्माराम जी २. विशनचंदजी ३. चंपालालजी ४. हुकमचंदजी ५. सलामतरायजी ६. हाकिमरायजी ७. खूबचंदजी ८. कन्हैयालालजी ९. तुलसीरामजी १०. कल्याणचंदजी ११. निहालचंदजी
दीक्षा के पश्चात नाम श्री आनंद विजयजी श्री लक्ष्मी विजयजी श्री कुमुद विजयजी श्री रंग विजयजी श्री चारित्र विजयजी श्री रत्न विजयजी श्री संतोष विजयजी श्री कुशल विजयजी श्री प्रमोद विजयजी श्री कल्याण विजयजी श्री हर्ष विजयजी
गुरु का नाम श्री बुद्धि विजयजी श्री आनंद विजयजी श्री लक्ष्मी विजयजी श्री आनंद विजयजी श्री आनंद विजयजी श्री आनंद विजयजी श्री आनंद विजयजी श्री आनंद विजयजी श्री आनंद विजयजी श्री चारित्र विजयजी श्री लक्ष्मी विजयजी
श्रीमद् विजयानंद सूरिः जीवन और कार्य
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