SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीन है न ही आगम सम्मत । हमारे प्रतिक्रमण का रूप भी सही नहीं है । मुंहपर वस्त्र बांधने का किसी भी शास्त्र में उल्लेख नहीं है। हमारे शास्त्रों में साधु को एक दंड रखने का स्पष्ट निर्देश है, परन्तु हम लोग दंड भी रखते नहीं है। __पंडित रत्नचन्दजी ने अपनी बातों के समर्थन के लिए आगम पाठों को निकाल कर उन्हें बताया। इस पर पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज ने प्रश्न किया कि इस समय ऐसा कोई सम्प्रदाय है, जो भगवान महावीर स्वामी की श्रमण परंपरा का निर्वाह करता हो? तब पंडित रत्नचन्दजी ने कहा कि जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय भगवान महावीर स्वामी की वास्तविक श्रमण परंपरा का सम्प्रदाय है। उनका साधु-वेष आगम शास्त्र के अनुरुप है । वे अपने हाथ में दंड भी धारण करते हैं और मंदिर तथा तीर्थों में जाकर अरिहंत की मूर्ति के समक्ष भावपूजा-स्तुति करते हैं । उनका प्रतिक्रमण भी शास्त्रीय है। ___पंडित रत्नचन्दजी के सत्य और खोजपूर्ण विचार सुनकर पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज ने उन्हीं के विषय में एक प्रश्न पूछा कि जब आप इन सभी बातों को जानते हैं कि हमारा सम्प्रदाय, हमारा वेष, हमारी दिनचर्या आदि सभी कुछ शास्त्र विरुद्ध हैं तो फिर आप स्वयं इस परंपरा में अभी तक क्यों बैठे हुए हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए पंडित रत्नचंदजी ने कहा कि जैन धर्म के वास्ताविक स्वरूप को जानते हुए भी मैं इसे प्रकट नहीं कर रहा हूँ। इसका कारण यही है कि मैं अब वृद्ध हो चुका हूँ। किसी नये क्षेत्र में जाकर कार्य करने की क्षमता मुझमें नहीं है। मैं तुम्हारे जैसे प्रतापी पुरुषसिंह की प्रतीक्षा कर रहा हूं जो सत्य धर्म का शंखनाद करें। मूर्तिपूजा में मेरी दृढ़ आस्था है। मैं प्रतिदिन परमात्मा की प्रतिमा के दर्शन करता हूँ। इतना कह कर उन्होंने चंदन काष्ठ की एक डिबिया निकाली । उसे खोला । उसमें भगवान महावीर स्वामी की छोटी सी मूर्ति थी। पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज ने भी उस मूर्ति के दर्शन किए। आगरा का चातुर्मास पूर्ण हुआ। पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज ने पंडित रत्नचंदजी के चरणों में मस्तक रखा और कहा- चार मास तक आपने मुझे जो ज्ञान निधि प्रदान की है, जिस सत्य-तथ्य का दिग्दर्शन कराया है, साहस, प्रगति और क्रांति करने की जो प्रेरणा दी है इन सभी के लिए मैं आपका अत्यन्त ऋणी और कृतज्ञ हूँ। आपके उपकार का बदला मैं कभी नहीं चुका २६८ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy